आर्यसमाज कोई नया पन्थ, धर्म या सम्प्रदाय नहीं है अपितु प्राचीन वैदिक धर्म, संस्कृति और मूल्यों की पुन: स्थापना के लिए प्रेरित व समर्पित कार्यक्रम है, आन्दोलन है। आज महर्षि दयानन्द के ये शब्द हमें अन्तर्दर्शन व आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा देते हैं कि- "मैं अपना मन्तव्य उसी को मानता हूँ जो तीन काल में सबको एक सा मानने योग्य है। मेरा कोई नवीन मतमतान्तर व कल्पना चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसे मानना और मनवाना जो असत्य है उसे छोड़ना-छुड़वाना ही मुझे अभीष्ट है।"
Ved Katha 1 part 2 (Greatness of India & Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य संसार का उपकार करना रहा है। अत: आर्यसमाज के नियम एक समग्र, समन्वयवादी विचारधारा को व्यक्त करते हैं । वे केवल बाह्य विधानों या कर्मकाण्ड पर ही आधारित नहीं हैं, अपितु एक विशिष्ट जीवन-पद्धति के रूप में व्यष्टि और समष्टि की सर्वतोमुखी उन्नति, राष्ट्रीयता और वेदों की परम प्रतिष्ठा के साथ-साथ ईश्वर की सर्वशक्तिमता और न्यायकारिता पर बल देते हैं। इस दृष्टि से विश्लेषण करने पर विदित होता है कि नवीन भारत के स्वाधीनता संग्राम और पुनर्निमाण में आर्यसमाज ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय जीवन के धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक तीनों ही क्षेत्रों में इसका योगदान अमूल्य रहा है।
धार्मिक - आर्यसमाज का अवतरण प्रमुखत: धार्मिक संस्था के रूप में हुआ था। अत: धार्मिक क्षेत्र में तो इस संस्था ने गम्भीर क्रान्ति का प्रवर्तन किया। महर्षि दयानन्द की दृढ मान्यता थी कि जब तक वेदों के अनुरूप मानवीय चिन्तन में उदारता नहीं आयेगी तथा व्यक्ति व समाज सत्य एवं प्रेम की मूल मर्यादाओं में बॅंधकर नहीं चलेंगे तब तक सच्चे मानव धर्म का परिपालन नहीं हो सकेगा। इसीलिए उन्होंने अविद्याजन्य नाना मतों के फैलने से संसार में जो द्वेष फैल गया था, उसे दूर करने के लिए वेदों के उद्धार का बीड़ा उठाया और अपना सारा जीवन इसी महान् लक्ष्य की सिद्धि के लिए समर्पित कर दिया।
वस्तुत: वैदिक धर्म के सच्चे वास्तविक स्वरूप का प्रचार करने के लिए ही उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी, चूँकि उन्नीसवीं सदी के आर्य धर्म में अनेक विकृतियॉं आ चुकी थीं। एकेश्वराराधन के साधन पर हजारों देवी-देवताओं की पूजा प्रचलित हो चुकी थी। मृतकों के लिए पिण्डदान करना, पितरों का श्राद्ध व तर्पण करना आदि अनेक वेद विरुद्ध अनुष्ठान धार्मिक कृत्य समझे जाने लगे थे। राम-कृष्ण आदि महानुभावों को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा होने लगी थी। ऐसी विषम परिस्थिति में महर्षि ने अद्भुत साहस और संकल्प के साथ सनातन वैदिक धर्म की उदार धार्मिक क्रान्ति का सूत्रपात किया व आर्यसमाज की स्थापना की।
स्वामी जी ने यह भी स्पष्ट किया कि "आर्य" शब्द किसी विशेष जाति का वाचक नहीं, अपितु श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाव वाले मानव का सूचक है। यह शब्द "ऋ" धातु से बना है जिसका अर्थ होता है मर्यादित एवं नियमित "गति" (ऋतु और ऋत शब्द भी इसी धातु से बने हैं)। अत: "आर्य" शब्द में ऋ धातु का प्रयोजन ही यह प्रकट करता है कि आर्यों का जीवन आचरण, विचार सभी व्यवस्थित एवं नियमित हों। इसी भांति यदि "समाज" शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ देखा जाये तो- "समम् अजन्ति जना: यस्मिन् इति"- अर्थात जिसमें सब लोग मिलकर चलते हैं, वह "समाज" है। अत: श्रेष्ठ जनों का सम्मेलन ही "आर्य समाज" है। अपने उद्गम से लेकर पिछली एक शताब्दी में इस संस्था ने अपने इस नामकरण को अनेकश: चरितार्थ भी कर दिखाया है।
धार्मिक क्षेत्र में आर्यसमाज ने अनेक कुरीतियों व रूढियों का खण्डन कर एक सर्वोच्च सर्वशक्तिमान्, निराकार परमेश्वर की उपासना का प्रचार किया। वेदानुकूल त्रैतवादी दार्शनिक विचारधारा को प्रश्रय दिया तथा वैदिक धर्म के वास्तविक विशुद्ध रूप को प्रतिष्ठापित करने का अनवद्य प्रयास किया। इसीलिए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा कि- "मेरा प्रणाम हो उस महान् गुरु दयानन्द को जिसकी दृष्टि ने भारत के आध्यात्मिक इतिहास में सत्य व एकता को देखा, जिसके मन ने भारतीय जीवन के सब अंगों को प्रदीप्त कर दिया। जिस गुरु का उद्देश्य भारत की अविद्या, आलस्य और प्राचीन ऐतिहासिक तत्व को अज्ञान से मुक्त कर सत्य और पवित्रता की जागृति में लाना था। उसे मेरा बारम्बार प्रणाम है। मैं आधुनिक भारत में मार्गदर्शक उस दयानन्द को आदरपूर्वक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ जिसने देश की पतितावस्था में भी हिन्दुओं को प्रभु की भक्ति और मानवसमाज की सेवा के सच्चे-सीधे मार्ग का दर्शन कराया।"
इस भांति धार्मिक दृष्टि से आर्यसमाज ने भारत राष्ट्र के शक्तिशून्य शरीर में नवजीवन का संचार किया इसमें कोई संदेह नहीं।
सामाजिक -स्वाधीन भारत के सामाजिक नवनिर्माण में भी आर्यसमाज का अमूल्य योगदान रहा है। इसने जन्मना जातिव्यवस्था को नकार कर गुण-कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था को मान्य ठहराया। साथ ही हिन्दू मात्र को आर्य नाम देकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सबको एक आसन पर ला बिठाया और अस्पृश्यता की जड़ें खोखली कर दीं। महात्मा गान्धी के हरिजनोद्धार कार्यक्रम की पृष्ठभूमि आर्यसमाज ने बहुत पहले ही तैयार कर दी थी। अत: यदि यह कहा जाये कि स्वामी दयानन्द से बढकर अस्पृश्यों के अपहृत अधिकारों का उत्साही समर्थक दूसरा कोई नहीं हुआ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
बाल-विवाह और बेमेल विवाह का प्रबल खण्डन, शुद्धि-आन्दोलन, विधवा-विवाह और स्त्री शिक्षा का मण्डन आदि कार्यक्रमों के द्वारा आर्यसमाज ने पिछड़े हुए एवं रूढिग्रस्त हिन्दू समाज में महान् क्रान्ति का सूत्रपात किया। "सत्यार्थप्रकाश" जैसे दिव्य उद्बोधक ग्रन्थ की रचना कर स्वामी दयानन्द ने भारतीय समाज में महान सुधारक का दायित्व निभाया। नारी जाति के खोये हुए सम्मान को पुन: प्रतिष्ठापित करने का श्रेय यदि किसी को है तो महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज को ही है।
राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति भी आर्यसमाज का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। हिन्दी को आर्यभाषा का नाम देकर उसके प्रचार-प्रसार को आर्यसमाज के प्रमुख धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रखा गया। आर्यसमाज के प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द ने स्वयं गुजराती भाषी होते हुए भी प्राय: अपने सभी ग्रन्थ हिन्दी में लिखे। आर्यसमाज ने ही सर्वप्रथम अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी शिक्षा तथा अंग्रेजी चाल-चलन का विरोध कर हिन्दी माध्यम की शिक्षण संस्थायें स्थापित कीं।
वेदों, वैदिक दर्शनों, वैदिक संस्कृति एवं साहित्य के संरक्षण-संवर्धन में भी आर्यसमाज की भूमिका अतुलनीय रही है। गुरुकुलों, डी.ए.वी. शिक्षण संस्थाओं और कन्या पाठशालाओं के माध्यम से आर्यसमाज ने वेदों और वेदभाष्यकार महर्षि दयानन्द के सन्देश को जन-जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। आर्यसमाज ने ही सर्वप्रथम शिक्षा की आवश्यकता का उद्घोष किया, जैसा कि महर्षि की दयानन्द के इस वक्तव्य से व्यक्त है- "इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रख सके। पाठशाला में अवश्य भेज देवें, न भेजे वह दण्डनीय हो।" अत: यदि महर्षि को आधुनिक युग का सर्वप्रमुख शिक्षाशास्त्री कहा जाये तो असत्य न होगा।
गुणकर्मानुसारचातुर्वर्ण्य-व्यवस्था तथा न्याय पर आधारित सामाजिक संगठन की परिकल्पना जिसमें न कोई शोषक हो व न ही शोषित, आर्यसमाज की ही देन है। इसमें समाजवाद और पूंजीवाद दोनों व्यवस्थाओं के दोषों का निराकरण कर सबके प्रति न्याय की भावना पर बल दिया गया है। मानव-समाज के कल्याण के लिए भौतिकता एवं अध्यात्म में समन्वय को अनिवार्य जानकर आर्यसमाज ने आश्रम व्यवस्था की भी उपादेयता मानी है। इस भांति सामाजिक क्षेत्र में भी आर्यसमाज ने भारत राष्ट्र के उत्थान हेतु अनुपम कार्य किया है।
राजनैतिक - यद्यपि आर्यसमाज की स्थापना का मूल उद्देश्य धार्मिक ही था, राजनैतिक नहीं, किन्तु अपने व्यापक एवं उदार राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के कारण भारत के स्वाधीनता संग्राम में जितना आर्यसमाज ने योग दिया है, उतना अन्य किसी संस्था ने नहीं। स्वदेशी, स्वभाषा एवं स्वराज्य का सर्वप्रथम उद्घोष स्वामी जी ने ही किया। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि महिला उत्थान, हरिजन उद्धार, राष्ट्रीय एकता, गोरक्षा, मद्यनिषेध आदि महत्वपूर्ण आन्दोलन आर्यसमाज ने ही चलाए। इन्हें बाद में महात्मा गांधी ने नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनाया। स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, महात्मा हंसराज, हरदयाल जी, पण्डित गुरुदत्त, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल आदि स्वाधीनता सेनानी आर्यसमाज की ही देन थे। श्री वी. जी. पटेल ने स्वामी दयानन्द की राजनैतिक सूझबूझ की सराहना करते हुए कहा है कि- "मेरी दृष्टि में ऋषि दयानन्द एक सच्चे राजनैतिक नेता थे क्योंकि उन्होंने सबसे पहले कहा था कि दूसरों का अच्छा शासन अपने बुरे शासन से भी बुरा होता है।"
यह महर्षि की राजनैतिक दूरदर्शिता थी, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने राज्यसंचालन में तीन सभाओं का प्रतिपादन किया है। प्रथम राज्यप्रबन्ध के लिए "राजार्यसभा", दूसरी-सब प्रकार की विद्याओं के प्रचार के लिए "विद्यार्यसभा" तथा तीसरी-धर्म के प्रसार व अधर्म की हानि के लिए "धर्मार्यसभा"। महर्षि ने यह भी विधान किया है कि ये तीनों सभायें सामान्य विषयों के लिए परस्पर मिलकर उत्तर व्यवहारों का निर्धारण किया करें। इन तीनों सभाओं में राजार्य सभा की स्थिति सर्वोच्च है । चूंकि शासन का संचालन उसी के द्वारा होता है। राजा का चयन वंशक्रमानुगत न होकर जनता द्वारा निर्वाचन के आधार पर होना चाहिए। राजा के गुण व कर्त्तव्यों का निर्देश तथा राज्य संस्था के कार्यक्षेत्र के विषय में भी उन्होंने अपने गम्भीर विचार प्रकट किये हैं। महर्षि के इन मन्तव्यों के अनुसार आर्यसमाज ने भी राष्ट्र के राजनैतिक जीवन में समय-समय पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय एकता व अखण्डता के विषय में आर्यसमाज का दृष्टिकोण आरम्भ से ही बड़ा स्पष्ट एवं सुदृढ रहा है। देश के विभाजन की मांग पर आर्यसमाज ने उसका प्रबल विरोध किया था। विदेशी आक्रमणों एवं आन्तरिक संकटपूर्ण समस्याओं के समाधान हेतु आर्यसमाज सदैव तत्पर रहा है। राष्ट्र रक्षा कोष में तथा विस्थापितों के पुनर्वास में इसने उन्मुक्त हृदय से जीवन-धन-प्रयत्न लगाये हैं।
इस प्रकार उक्त संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक सभी दृष्टियों से राष्ट्र निर्माण में आर्यसमाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। किन्तु यह चित्र केवल एक पक्ष है। राष्ट्रनिर्माण में आर्यसमाज ने बड़ी सक्रिय एवं सशक्त भूमिका निभाई है। इसमें तो किसी को विप्रतिपत्ति नहीं, किन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण विचारणीय विषय है कि आज की परिस्थितियों में राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए आर्यसमाज की क्या भूमिका होनी चाहिए?
आज हमारे देश की राजनैतिक स्वतन्त्रता के लगभग सात दशक पूरे हो चुके हैं, किन्तु मानसिक रूप से हम अभी भी दासता की श़ृंखलाओं में जकड़े हुए हैं। देश की प्रगति के लिए अनेकानेक सराहनीय योजनाएं बन रही हैं और क्रियान्वित भी हो रही हैं, किन्तु परिणामों की सुखद प्रतीक्षा अभी भी पूरी नहीं हुई है। आज सर्वत्र राष्ट्रीय चरित्र के अभाव की चर्चा चल रही है। अध्यापक, मजदूर, वकील, राजनेता, विद्यार्थी सभी अपनी-अपनी जगह असन्तुष्ट व क्षुब्ध हैं। संस्कारों की तथा सुसंस्कारी सन्तति की युगचुनौती नये सिरे से प्रखर हो रही है। दहेज-प्रथा, साम्प्रदायिक विद्वेष, जातिवाद, सतीप्रथा, भ्रष्टाचार और आतङ्कवाद आदि विभिषिकाओं से हमारा राष्ट्र अभी भी त्रस्त है।
ऐसी विषम परिस्थिति में आर्यसमाज के गौरवपूर्ण अतीत योगदान के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न उठना बड़ा सहज है एवं स्वाभाविक है कि इस दशा में आज आर्यसमाज का और आर्यजनों का दायित्व क्या है? आर्यसमाज की स्थापना जिन महान् उद्देश्यों को लेकर हुई थी, आर्यसमाज के नियमों में जिस सार्वभौम मानवता के आदर्श दिये गये हैं, क्या हम उनके पोषण-संरक्षण के प्रति सावधान हैं? क्या हम वास्तव में "आर्य" कहलाने के अधिकारी हैं या केवल "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" और "आर्यसमाज अमर रहे" के नारे लगाकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ बैठे हैं? ये और ऐसे ही अनेक अन्य प्रश्न आज प्रत्येक आत्मान्वेषी आर्य के हृदय को आतुर बना रहे हैं। वास्तव में यह भी बड़े खेद के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि आज हम आर्यजन भी अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों के प्रति पूर्णत: समर्पित नहीं हैं। केवल साप्ताहिक सत्संग या वार्षिक उत्सव मनाकर बड़े-बड़े आदर्शों का स्थापन करके नहीं, अपितु अपने-अपने स्तर पर किसी भी एक रूढि से, एक कुरीति संघर्ष करने का शिवसंकल्प यदि हममें से प्रत्येक कर ले तो सम्भवत: आज की परिस्थिति में भी आर्यसमाज का योगदान सबसे बड़ा होगा। यह राष्ट्र हमारी माता है और हम सब इसके सजग प्रहरी हैं। अत: अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक होना हमारा परम धर्म हैं। महर्षि दयानन्द ने जिन पुनीत ध्येयों को लेकर यह "ओ3म" का ध्वज ऊंचा उठाया था और हमारे पूर्वजों ने जिन नैतिक आदर्शों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर दिया, क्या हम अपनी आंखों के सामने उन उदात्त मूल्यों का हनन होता देखते रहेंगे?
आज हमें सच्चे अर्थों में "आर्य" बनना है और इस संस्था को वस्तुत: समाज बनाना है। साम्प्रदायिक विद्वेष मिटाना है, सामाजिक कुरीतियों से लड़ना है और राष्ट्रीय भावना का प्रसार करना है। इसके लिए हमें अपना दृष्टिकोण उदार व व्यापक बनाना होगा। एकांगी, संकीर्ण विचारधारा को त्यागकर सर्वांगीण जीवन दर्शन अपनाना होगा और आर्य समाज के नियमों का न केवल शब्दश: उच्चारण, अपितु अर्थत: पालन भी करना होगा । वेदों और वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान का प्रयास करना होगा तथा देवभाषा संस्कृत और आर्यभाषा हिन्दी के प्रचार के लिए कटिबद्ध होना होगा। पिछले सवा सौ वर्षों में आर्यसमाज ने जिस भांति राष्ट्र की सेवा की है, उसी भांति इकीसवीं सदी में भी हमें आर्यसमाज की अस्मिता को अक्षुण्ण रखना है। आज की परिस्थिति में हमें अपनी ही त्रुटियों को खोज-खोज कर दूर करना होगा। आज हमें किसी बाह्य शक्ति से नहीं, अपने आप से जूझना है और इसके लिए अदम्य साहस, अद्भुत त्याग एवं अप्रतिम सहिष्णुता का आश्रय लेना होगा। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि व्यक्ति से समाज बड़ा है, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से भी बढकर है मानवता। मानवता की रक्षा हमारा परम धर्म है। इस धर्म के पालन हेतु हमें न तो कहीं जाने की आवश्यकता है, न ही अत्यन्त शिक्षित या धनवान् होने की आवश्यकता है, केवल यह दृढ निश्चय करने की आवश्यकता है कि- "इस समाज का उद्देश्य है न केवल अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट रहना, अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझना।"
जिस क्षण हममें से प्रत्येक आर्य यह संकल्प सच्चे मन से कर लेगा, उसी क्षण राष्ट्र्र निर्माण का महनीय कार्य मानो सम्पन्न हो जायेगाऔर हम भी वस्तुत: आर्य कहलाने के अधिकारी बनेंगे। अत: आइये, राष्ट्र निर्माण के इस महायज्ञ में हम सब अपनी आहुति श्रद्धापूर्वक समर्पित करें। तभी हमारा राष्ट्र पुन: अपने खोये गौरव को पा सकेगा और तभी राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त का यह उद्घोष सत्य सिद्ध हो सकेगा कि -
संसार में किस देश का सबसे अधिक उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है,वह कौन? भारत वर्ष है !- डॉ. श्रीमती शशिप्रभा कुमार
स्वामी दयानन्द मेरे गुरु
स्वामी दयानन्द मेरे गुरु हैं। संसार में मैंने सिर्फ उन्हें ही अपना गुरु माना है। आर्यसमाज मेरी माता है। इन दोनों की गोद में मैं खेला हूँ। मेरा हृदय और मस्तक दोनों को उन्होंने घड़ा है। मेरे गुरु एक महान् स्वतन्त्र मनुष्य थे, इसका मुझे अभिमान है। उन्होंने मुझे स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करना सिखाया। ..... मेरे जीवन में जो हिस्सा खराब है वह मेरा अपना है। वह या तो मुझको विरासत में मिला है या मेरे पूर्व जन्म के संस्कारों का फल है। लेकिन मेरे जीवन का जो हिस्सा अच्छा और लोगों में प्रशंसा योग्य है, वह सब आर्यसमाज की बदौलत है। आर्यसमाज ने मुझे वैदिक धर्म से प्यार करना सिखलाया, आर्यसमाज ने मुझे प्राचीन आर्य सभ्यता का मान सिखलाया।
आर्यसमाज ने प्राचीन आर्यों से मेरा सम्बन्ध जोड़ा और मुझे उनका सेवक बनाया। आर्यसमाज ने मुझे हर जाति से प्यार करना सिखाया। आर्यसमाज ने मुझे कुर्बानी का मार्ग दिखलाया। आर्यसमाज ने शिक्षा दी कि समाज, धर्म और देश की सेवा करनी चाहिए और उसकी सेवा में जो मनुष्य बलिदान करता है और दु:ख उठाता है उसे स्वर्ग का राज्य मिलता है।मैंने सार्वजनिक सेवा में तमाम सबक आर्यसमाज में रहते हुए आर्यसमाज से सीखे। आर्यसमाज के क्षेत्र में मैंने अपने प्यारे मित्र बनाये। आर्यसमाज के क्षेत्र में ही मैंने सार्वजनिक जीवन की पवित्रता के नमूने देखे।आर्यसमाज के उपकार मेरे ऊपर अनगिनत और असीम हैं। अगर मेरा बाल-बाल भी आर्यसमाज पर निछावर हो जाये तो भी मैं उन उपकारों से उऋण नहीं हो सकता।यदि मैं आर्यसमाज में दाखिल न होता तो ईश्वर ही जाने क्या होता, मगर यह सच है कि मैं आज जो कुछ हूँ वह न होता। - लाला लाजपतराय
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आर्यों का मूल निवास आर्यों के मूल निवास के विषय में महर्षि दयानन्द का दृढ कथन है कि सृष्टि के आदि में मानव तिब्बत की धरती पर उत्पन्न हुआ था। तिब्बत में पैदा होने वालों में आर्य भी थे और दस्यु भी थे। स्वभाव के कारण उनके आर्य और दस्यु नाम हो गये थे। उनका आपस में बहुत विरोध बढ गया, तब आर्य लोग उस...
नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...