महर्षि दयानन्द सरस्वती मुक्ति में जीव की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मुक्ति में जीव का ब्रम्ह में लय हो जाता है। वह मुक्तजीव बम्ह में अव्याहतगति से आनंदपूर्वक विचरण करता है। महर्षि कहते हैं कि मुख्य रूप से जीव के पास एक प्रकार की शक्ति होती है, परन्तु उनके मत में जीव के पास निम्न शक्तियां और भी रहती है - बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भीषण, विवेचना, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन और गंधग्रहण तथा ज्ञान इन २४ चौबीस प्रकार के सामर्थ्य से युक्त जीव रहता है। यहाँ महर्षि का मुख्य शक्ति से अभिप्राय ज्ञान प्रतीत होता है, उसीके बल से वह मुक्ति में अव्याहतगति होकर आनन्द का भोग करता है और जो चाहता है, उसको प्राप्त कर लेता है।
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नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...