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स्वामी दयानन्द सरस्वती और हिन्दी

कार्तिक की सघनतम अमावस्या को सत्य की खोज में जिन महापुरुषों ने अपने प्राणों की बाती जलाई, उनमें स्वामी दयानन्द भी थे। वह वर्तमान युग के सबसे गलत समझे जाने वाले व्यक्ति थे। "महान्‌ बनना ही गलत समझा जाना है", यदि इमर्सन के इन शब्दों में विश्वास करें तो उनकी महानता स्वयं सिद्ध थी। लेकिन कुछ भी क्यों न हो, बहुत से दूसरे क्षेत्रों में भले ही उनसे हमारा मतभेद हो, पर यह निर्विवाद है कि वह आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे।

Ved Katha Pravachan - 10 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

हमारे राष्ट्रीय जीवन के अनेक पहलुओं पर स्वामी दयानन्द का प्रभाव अक्षुण्ण है। आज हिन्दी के राजभाषा बन जाने पर उस पर चारों ओर से साम्राज्यवाद का दोष लगाया जा रहा है। आज की  राजनीति ने हमें ऐसे अनेक शब्द सिखा दिये हैंजिनका अर्थ समझे बिना हम उनका हर कहीं प्रयोग करते हैं। यह साम्राज्यवाद भी एक ऐसा ही हौवा हैलेकिन यदि इस शब्द की भावना का हिन्दी वालों पर तनिक भी प्रभाव है तो उसके लिए वे दोषी नहीं हैं। दोषी हैं स्वयं अहिन्दीभाषी। उन्हीं लोगों ने सबसे पहले घोषणा की कि अगर देश की कोई एक भाषा हो सकती है तो वह हिन्दी है। गुजराती दयानन्द उन्हीं में अग्रणी थे और उन्हें इस ओर प्रेरित करने वाले थे बंगाली।

केशव बाबू की प्रेरणा - अपने जीवन के लगभग 35 वर्ष स्वामी दयानन्द ने ज्ञान की खोज में इधर-उधर भटक कर बिता दिये थे। सन्‌ 1865 में जब स्वामी विरजानन्द से उन्होंने विदा लीतब वे लगभग 41 वर्ष के थे। उसके सात वर्ष बाद सन्‌ 1872 में अपने मत का प्रचार करते हुए उन्होंने बंगभूमि में प्रवेश किया। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में यह एक अमर घटना है। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर और उनके भक्तिभाजन केशवचन्द्र सेन की मित्रतापूर्ण प्रेरणा का फल था कि दयानन्द ने हिन्दी को अपनाया। उस समय उनकी आयु लगभग 48 वर्ष की थी। वह संस्कृत के धुरन्धर विद्वान्‌ थे। वह जन्म से गुजराती ब्राह्मण थे एक बंगाली की आग्रहपूर्ण प्रेरणा से उन्होंने हिन्दी सीखी। क्या हिन्दी के पक्ष में ये सब अकाट्‌य युक्तियॉं नहीं हैंकेशव बाबू ने स्वयं हिन्दी क्यों नहीं सीखीइस प्रश्न का उत्तर इतिहास में नहीं मिलता। परन्तु निश्चय ही उन्होंने स्वामी दयानन्द में एक ज्योति देखी थी और कहीं यह ज्योति उनके अपने काम के समान कुछ दायरे को रोशन करके बुझ न जायेइस विचार से उन्होंने स्वामी जी को हिन्दी जानने का परामर्श दिया। कर्त्ता से अधिक प्रेरक पूज्य हैक्योंकि वह कर्त्ता की शक्ति है। स्वामी दयानन्द के साथ ही केशव बाबू भी हम हिन्दीवालों के कृतज्ञता के अधिकारी हैंशायद उनसे भी अधिक।

मथुरा से जाने के बाद और बंगाल में आने से पहले जो सात साल दयानन्द ने इधर-उधर प्रचार में बितायेउन्होंने समझ लिया था कि यद्यपि संस्कृत देववाणी हैतथापि उसमें सर्वसाधारण की भाषा बनने का योग्यता नहीं रह गयी है। अंग्रेजी विदेशी भाषा थी। भाषा संस्कृति और सभ्यता का कोश है। किसी भी सभ्यता के अपने गुण होते हैं और भाषा उन गुणों की वाहक है। भाषा के बदल जाने पर सभ्यता और संस्कृति में उथल-पुथल मच जाने की पूरी सम्भावना होती हैऐसा वह मानते थे। तब जिस भाषा की रूप-रेखाभाव-व्यञ्जना बिल्कुल ही हमारी संस्कृति से मेल नहीं खातीवह आर्य-सभ्यता के पुनरुद्धारक को कैसे स्वीकार हो सकती थी। लेकिन स्वामी दयानन्द को दूसरी भाषाओं से द्वेष नहीं था। "सत्यार्थप्रकाश" के द्वितीय समुल्लास में उन्होंने स्पष्ट लिखा है- "जब पांच-पांच वर्ष के लड़का-लड़की होंतब देवनागरी अक्षरों का अभ्यास कराएँअन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का भी।"

जनभाषा का प्रयोग - स्पष्ट हैहिन्दी को अपनाते समय दयानन्द का यही विचार रहा होगा कि लाखों-करोड़ों आदमियों तक अपनी आवाज पहुँचाने के लिए जनसाधारण की भाषा का प्रयोग ठीक है। फिर वह समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बान्धना चाहते थे और इसी भावना को लेकर मानसिक उन्नति का जो कार्य उन्होंने उठाया  वह लोकप्रचलित भाषा के माध्यम द्वारा ही हो सकता था। उनके विचारों से और कार्यप्रणाली से मतभेद हो सकता हैपर यह निश्चित जान पड़ता हैवह सारे देश को एक राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। एक भाषाएक धर्म और एक संस्कृति का प्रचार इसी मत की पुष्टि करता है। वह व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वार्थ से सर्वथा मुक्त थे। परन्तु उनकी अन्तरराष्ट्रीयता वेद का सहारा लेकर खड़ी होती थी और इसी कारण वह कभी-कभी इतने संकुचित जान पड़ते हैं कि अचरज होता है। तब वह उग्र राष्ट्रवादी से मालूम पड़ते हैं। वेद को अलग करते ही दयानन्द शून्य हैं।

अकबर के बाद वही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने विभिन्न धर्मावलम्बियों का एक एकता सम्मेलन बुलाया था। अनेक ईसाई और मुस्लिम उनके परम मित्र थे। पर कुछ भी होस्वामी जी हिन्दी को लेकर हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा बनाने नहीं चले थे। परन्तु राष्ट्रभाषा की जरूरत अनुभव करते करते हिन्दी तक आ पहुंचे थे। उनके द्वारा हिन्दी के अपनाएं जाने का एक और भी कारण हो सकता है। हिन्दी की लिपि देवनागरी थी। यही संस्कृत भाषा की भी लिपि है। वह संस्कृत के अनन्य प्रेमी थे। इसी से हिन्दी के प्रति भी उन्हें प्रेम रहा होगा। पर यह मुख्य कारण तो नहीं कहा जा सकताकाल्पनिक तर्कमात्र है। उन्होंने स्वयं लिखा है-

"दयानन्द के नेत्र वह दिन देखना चाहते हैंजब कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का प्रचार होगा। मैंने आर्यावर्त भर में भाषा का ऐक्य-सम्पादन करने के लिए ही अपने सकल ग्रन्थ आर्यभाषा में लिखे और प्रकाशित किये हैं।"

जिस दिन से उन्होंने हिन्दी के महत्व को समझाउसी दिन से वह उसका प्रयोग करने लगे। केशव बाबू की उस ऐतिहासिक प्रेरणा के लगभग दो वर्ष बाद स्वामी दयानन्द का अद्‌भुत ग्रन्थ "सत्यार्थप्रकाश" प्रकाशित हुआ। तब वह पचास वर्ष के थे। यद्यपि उस ग्रन्थ की भाषा पर संस्कृत और गुजराती का प्रभाव स्पष्ट हैतो भी अचरज होता है कि दो वर्ष के इस अल्पकाल में कैसे वह हिन्दी भाषा पर इतना अधिकार प्राप्त कर सके थे। ऐसा मालूम होता है, "सत्यार्थप्रकाश" के प्रथम संस्करण की भाषा बहुत शुद्ध नहीं बन पाई थी। बाद के संस्करण की भूमिका मेंे उन्होंने स्वीकार किया है कि संस्कृत बोलने तथा जन्म की भाषा गुजराती होने के कारण पहले मुझे इस भाषा का ठीक-ठीक परिज्ञान न थाजिससे भाषा अशुद्ध बन गयी थी। "सत्यार्थप्रकाश" के अतिरिक्त "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" आदि अनेक पुस्तकें उन्होंने हिन्दी में ही लिखी हैं। हिन्दी में वेदों की टीका एक अपूर्व देन है। वेदों को विद्वानों की पंचायत से निकालकर सर्वसाधारण की चीज बनाने का श्रेय स्वामी दयानन्द को ही है। किसी भी मत की धर्म-पुस्तकें जिस भाषा में होती हैंवह भाषा अत्यन्त गौरवमयी होती है। गुजराती होकर भी स्वामी दयानन्द ने यह गौरव हिन्दी को दिया। यहीं तक नहींउन्होंने अपने स्थापित किये हुए आर्यसमाज का यह नियम बना दिया कि प्रत्येक आर्य तथा आर्यसभासद्‌ को आर्यभाषा और संस्कृत जाननी चाहिए। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक आर्यसमाजी और आर्यसमाज से किसी भी रूप में सम्बन्ध रखने वाले को आर्यभाषा (हिन्दी) सीखना लाजिमी हो गया। तब हम यदि यह कह दें कि व्यापक रुप में हिन्दी का प्रचार करनेवालों में स्वामी दयानन्द का स्थान सबसे पहला है तो अत्युक्ति न होगी।

आर्यभाषा क्यों ? पर यह आर्यभाषा क्योंस्वामी दयानन्द का विचार था कि हम विदेश के सहारे न जीएँ। वैदिक युग में हम अपने को "आर्य" कहते थे। हमारे देश का नाम "आर्यावर्त" थातब भाषा "आर्यभाषा" क्यों न होवह हिन्दीहिन्दूहिन्दुस्तान को विदेशियों के दिए नाम कहते थे। अपने स्थापित समाज का नाम भी उन्होंने "आर्यसमाज" रखा। उनकी बात ठीक थी। अंग्रेज हमें "इंडियन" कहते हैं। हम भी अपने को ऐसे ही कहने लगें तो हॅंसी के ही पात्र होंगे। कुछ विद्वानों का विचार है कि इस भाषा का प्रयोग उसी युग में होने लगा थाजब देश आर्यावर्त कहलाया था। यह विवादास्पद प्रश्न है और फिर अब आर्यभाषा और हिन्दी के बीच कुछ झगड़ा भी नहीं है। हिन्दी शब्द के साथ बहुत काल से जो भावनाएँ सम्बन्ध रखती चली आई हैंउनका विचार करके अनुयायियों ने भी इस हिन्दी नाम को स्वीकार कर लिया है।

स्वामी दयानन्द मात्र हिन्दी प्रचार के लिए नहीं थे। उनका जो महान्‌ उद्देश्य थाउसकी पूर्ति में वह सहायक थीशायद अनिवार्य भी। तभी उन्होंने उसे अपनाया। इसी प्रकार वह साहित्यिक भी नहीं थे। जब उन्हें हिन्दी में लिखना पड़ातब उनका लिखा हुआ भी साहित्य में गिना जाने लगा। यही नहींअनजाने में ही उनके द्वारा हिन्दी पर कई स्थायी प्रभाव पड़े। उनके आसपास के युग में गद्य का विकास हुआ और पद्य कम लिखा गया। किसी भी भाषा में प्रारम्भिक साहित्य पद्य में ही मिलता है। हिन्दी में भी यही बात थी। व्यवहारवादराष्ट्रीयता का विकास आदि ऐसे कारण हैंजिनसे गद्य की उपज हुई। फिर उस युग में धार्मिक उथल-पुथल जो मची थीउसमें भी गद्य की आवश्यकता हुई। वाद-विवादमय प्रचार के लिए पद्य ठीक नहीं हैउसके लिए सरलजोरदार और बोलचाल की भाषा गद्य की जरूरत है। संस्कृतज्ञ और गुजराती होते हुए भी उनकी भाषा में कितना जोर हैं- "जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य ही नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश करे। किन्तु जो पदार्थ जैसा हैउसको वैसा ही कहनालिखना और मानना सत्य कहाता है।"

उनकी हिन्दी के नमूने - यह लिखते समय उनका मुख्य रुझान यही रहता था कि वह लोगों के दिल पर असर करे। फिर उन्हें शास्त्रार्थ करने होते थेउनके लिए तीव्र व्यंग्यमयी भाषा उन्हें बोलनी और लिखनी पड़ती थी। "सत्यार्थप्रकाश" के इस उद्धरण में क्रोध मानो उबल पड़ता है- "भला इन महाझूठ बातों को वे अन्धे पोप और बाहर-भीतर की फूटी आंखों वाले उनके चेले सुनते और मानते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि ये मनुष्य हैं वा अन्य कोई ! .... ग्रन्थों के बनानेहारे जन्मते ही क्यों नहीं गर्भ ही में नष्ट हो गयेवा जन्मते समय मर क्यों न गयेक्योंकि इन पोपों से बचते तो आर्यावर्त देश दु:खों से बच जाता।"

इस दूसरे उद्धरण में हास्य और व्यंग्य का कितना सुन्दर पुट है- "मथुरा तीन लोक से न्यारी तो नहींपरन्तु उसमें तीन जन्तु बड़े लीलाधारी हैं कि जिनके मारे जलथल और अन्तरिक्ष में किसी को सुख मिलना कठिन है। एक चौबे जो कोई स्नान करने जाए अपना कर लेने को खड़ा रहकर बकते रहते हैंलाओ भॉंगमर्ची और लड्‌डू खाएँपीएँयजमान का जय-जय मनायें। दूसरे जल के कछूए काट ही खाते हैंजिनके मारे स्नान करना भी घाट पर कठिन है। तीसरे आकाश के ऊपर लालमुख के बन्दर पगड़ीटोपीगहने और जूते तक भी न छोड़ेंकाट खाएँधक्के देंगिराकर मार डालें और ये तीनों पोपजी और पोपजी के चेलों के पूजनीय हैं।"

इसके अतिरिक्त परम्परा से चले आए भक्ति रस के विकृत हो जाने के कारण उन दिनों देश बहुत-कुछ मानसिक दासता में फॅंस गया था। जीवन में बौद्धिक शिथिलता भर चली थी। अन्धविश्वास और कोरी अन्धभक्ति का बहुत ही प्राबल्य था। जब स्वामी दयानन्द ने इस बौद्धिकपतन के विरुद्ध अपनी वाणी बुलन्द कीतब अनायास ही उसमें जोर पैदा हुआ। आर्यसमाज में कविता के लिए जो व्यापक उदासीनता नजर आती हैवह इसी का परिणाम है। एक-आध को छोड़कर कोई भी सुन्दर कवि हम वहॉं नहीं देखते। जो हैं उनकी भाषा वैसी ही लक्कड़तोड़ है जैसी गद्य कीमानो मात्र शब्दों की रूप-रेखा में बॉंध दिया गया है-

वीर भयानक रुद्र रूप समझी रणचण्डी।
सुन मेरी किलकार गिरी गच पैहुरसण्डी।।

उनके अहिन्दी प्रयोग - ऊपर हम लिख आये हैं कि "सत्यार्थप्रकाश" की भाषा को देखकर अचरज होता है। इतने थोड़े समय में इस तरह की चटकीली और मुहावरेदार भाषा कोई कैसे लिख सकता है। उनके पत्रों से यह भी जान पड़ता है कि उन्होंने सत्यार्थप्रकाश संस्कृत में लिखा और उसकी भाषा टीका पं. ज्वालादत्त तथा पं. भीमसेन ने की। पर जब पत्रों और "सत्यार्थप्रकाश" की भाषा का मिलान करते हैंतब विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता। ऊपर जो सत्यार्थप्रकाश के उद्धरण दिए गये हैंस्वामी दयानन्द के अतिरिक्त की कलम से नहीं निकल सकते। द्वितीय संस्करण की भूमिका में उन्होंने लिखा है- "अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास हो गया है। इसलिए इस ग्रन्थ की भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है।" तब हमें शंका होती है, "सत्यार्थप्रकाश" की भाषा स्वामी जी के अतिरिक्त किसी और की है। उनके एक पत्र की भाषा भी देखिये- "अब कहिए उस राज्य का कि जिसमें सोलह लाख के कुछ ऊपर मनुष्य बसते हैं। उनकी रक्षा और कल्याण का बड़ा भार आप लोग उठा रहे हैं। तथापि आप लोग अपने शरीर का आरोग्यसंरक्षण और आयु बढाने के काम पर बहुत कम ध्यान देते हैं। यह कितनी बड़ी शोचनीय बात है!"

संस्कृत का प्रभाव उन पर इतना था कि उनकी भाषा में तत्सम शब्दों की भरमार है। "पुराने" के लिए "पुराणे" और "सब" के लिए "सर्व" वह लिखते थे। पाखण्डसोलह तथ बीस आदि शब्दों के स्थान पर उन्होंने "पाषण्ड", "शोलह" और "बीश" लिखा है। कहीं-कहीं लिंग क्रिया आदि का प्रयोग भी संस्कृत व्याकरण के अनुसार हैजैसे "कोई भी दूसरा वस्तु न था", "एक प्राचीन पुस्तक जो विक्रम के सं. 1782 का लिखा हुआ था", "बिना पढे संस्कृत कैसे आ सकता है", "यह अग्नि का सामर्थ्य हैं।" विष्णु प्रभाकर

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Swami Dayanand's influence on many aspects of our national life is intact. Today, when Hindi has become the official language, imperialism is being blamed all around it. Today's politics has taught us many such words, without understanding the meaning of which we use them everywhere. This imperialism is also such a bogeyman, but if the feeling of this word has a slight effect on the Hindi people, then they are not guilty for that.

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