देश की एकता व अखण्डता के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का नाम बहुत उल्लेखनीय है। उन्होंने एक नारा और एक कार्यक्रम जनता को दिया था- "भारत जोड़ो"। यह नारा आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने डेढ सौ वर्ष पहले देश को दिया था। उन्होंने यह नारा दिया ही नहीं बल्कि अपने आपको उसमें अनुशासित कर लिया था। कल्पना कीजिए एक ऐसे प्रौढ व्यक्ति के पुरुषार्थ की जिसकी मातृभाषा गुजराती रही हो और जिसकी शिक्षा-दीक्षा केवल और केवल संस्कृत में हुई हो, वह व्यक्ति दो वर्ष में अपना वार्तालाप पत्र-व्यवहार व्याख्यान और साहित्य लेखन हिन्दी में करने लगा।
Ved Katha Pravachan - 9 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
आर्यसमाज एक सार्वभौम संस्था है। जिस देश में जो आर्यसमाज है उसी देश के नागरिकों की जो भाषा है उसी भाषा को वहॉं का आर्यसमाज अपनी राष्ट्रभाषा मानकर चलता है। दुर्भाग्य से आर्यसमाज का वह सार्वभौम स्वरूप अभी तक नहीं बन पाया है जिसकी अपेक्षा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने की थी। विदेशों में आर्यसमाजें हैं, किन्तु अधिकतर वहॉं के आर्यसमाजी प्रवासी भारतीय हैं। विदेशियों के मूल में आर्यसमाज पनप नहीं सका। जिस दिन विदेशियों की संस्कृति में आर्यसमाज पहुंच जाएगा, तब इंग्लैड का आर्यसमाज अपनी राष्ट्रभाषा अंग्रेजी कहेगा और अरब का आर्यसमाज अपनी राष्ट्रभाषा अरबी कहेगा। आर्यसमाज के प्रारम्भिक वर्षों में यह कल्पना बहुत अधिक उजागर थी, तभी तो प्रचारकगण गाया करते थे-
आएंगे खत अरब से जिनमें लिखा यह होगा।
गुरुकुल के ब्रह्मचारी हलचल मचा रहे हैं।।
इतना ही नहीं आर्यसमाजी प्रचारकों ने वहॉं प्रयास भी किया है। सार्वभौम आर्यसमाज की अपनी भाषा मात्र संस्कृत है। आदि सृष्टि में परमात्मा ने जिस भाषा के माध्यम से वेदज्ञान दिया है, जो भाषा सब भाषाओं की जननी कही जाती है वही संस्कृत आर्य समाज की अपनी भाषा है। वेदों का ज्ञान यदि सबके लिए है तो संस्कृत का पठन-पाठन भी सबके लिए आवश्यक है। अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, जर्मन, जापान, ईरान, ईराक आदि सभी देशों को संस्कृत की विशेषता और उपयोगिता जिस दिन पता हो जाएगी, तब निश्चय ही वेदवाणी संस्कृत विश्व को जोड़ने की एक कड़ी का काम करेगी, ऐसी आशा और प्रयास आर्यों का होना चाहिए।
आर्य समाज की स्थापना करने वाले संन्यासी ने आर्यसमाज के 10 नियमों में भाषा के प्रश्न को नहीं बान्धा। क्योंकि नियम सार्वभौम संस्था के लिए थे । किन्तु अपने ग्रन्थों और प्रवचनों में आर्यभाषा के प्रयोग पर विशेष बल दिया। जिस प्रकार भारत में रहने वालों का "हिन्दु" नाम उन्हें पसन्द नहीं था उसी प्रकार भारत में अधिकतर प्रचलित भाषा हिन्दी को वे आर्यभाषा का गौरव देना चाहते थे। हिन्दी की जहॉं कहीं उन्होंने चर्चा की वहॉं आर्यभाषा शब्द का प्रयोग किया है। सत्यार्थप्रकाश के प्रत्येक समुल्लास के अन्त में "सुभाषा विभूषित" शब्दों का प्रयोग किया है। वेदज्ञ विद्वान् को हिन्दी भाषा के प्रति इतना लगाव होने का कारण मात्र एक था, वह था "भारत जोड़ो" घर से भाग जाने से लेकर कलकत्ता में पधारने तक के पूरे भारत भ्रमण में जहॉं अविद्या, अन्धकार, अन्याय, दुराचार, अभाव और दरिद्रता का उन्होंने साक्षात्कार किया, वहॉं जन-जन में बोली जाने वाली भाषा के महत्व को भी समझा। पाण्डित्यपूर्ण भाषा के आधार पर जन-मानस की सेवा असम्भव जानकर उन्होंने हिन्दी के प्रति अपने को समर्पित कर दिया। उनका यह समर्पण बंगाल के तत्कालीन विद्वानों की उपस्थिति में एक ऐतिहासिक घटना बन गया।
आर्यसमाज की स्थापना के साथ ही स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की रचना करके ग्रन्थ को सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य में धार्मिक ग्रन्थ होने का गौरव दिलाया। अब तक के मूल भारतीय धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में हुआ करते थे। बाद में उनका अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ करता था। किन्तु ऋषि का धार्मिक ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश मूल हिन्दी भाषा से संस्कृत में अनुदित हुआ। हिन्दी के प्रति इतनी भक्ति आने का एक ही कारण था भारत जोड़ो। भारत की दुर्दशा अपनी आंखों से देखने वाले योगी ने उनकी ही भाषा में सुनने का संकल्प जो ले लिया था। गायों की दुर्दशा पर हिन्दी में गोकरुणानिधि, देश के भावी नागरिकों की शिक्षा हेतु व्यवहारभानु पुस्तकें लिखीं। कर्मकाण्डों को ब्राह्मणों ने जो दुरूह और स्वाधिकार का विषय बना रखा था, उन सब कर्मकाण्डोें की पुस्तक "संस्कारविधि" मन्त्रों और विनियोग विधि के साथ सरल हिन्दी में प्रकाशित कर दिया। अपने पत्रों द्वारा तथा व्याख्यानों और विज्ञापनों में जनसाधारण में जनजागरण का अद्भुत कार्य अकेले एक संन्यासी ने हिन्दी के माध्यम से कर दिखाया, यह भी एक अद्वितीय कीर्तिमान है। देश के साधारण नाई का आतिथ्य स्वीकार करने से लेकर उदयपुर के राजमहलों तक को एक ही भाषा से जोड़ने का उनका प्रयास अद्भुत था। यह प्रयास आज के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है, जब हम अपने नेताओं को जनसाधारण से हिन्दी में वोट मांगकर शासन की कुर्सी प्राप्त होते ही अंग्रेजी भक्त बनते देखते हैं। एक भाषा व एक विचार का सन्देश आर्यसमाज को सौंपकर ऋषि ने ईश्वर की इच्छा पूर्ण की।
भारत की राष्ट्रभाषा सन् 1949 में घोषित की गयी, किन्तु आर्यसमाज ने अपने जन्मकाल अर्थात् 1875 से ही इसे अपनी राष्ट्रभाषा मान लिया था। आर्यसमाज के प्रत्येक सत्संग में हिन्दी की प्रधानता रहने लगी। पूरे देश में ज्यों-ज्यों आर्यसमाजें बढती गयीं, त्यों-त्यों हिन्दी का प्रचलन बढता गया। आर्यसमाज की पत्र-पत्रिकाएँ अधिकतर हिन्दी में प्रकाशित होने लगे। गुरुकुल और विद्यालयों में हिन्दी और संस्कृत को महत्त्वपूर्ण स्थान मिलने लगा। शिक्षण संस्थाओं से निकले हुए स्नातक अपने-अपने कार्यक्षेत्र में हिन्दी को प्रोत्साहन देने लगे। उत्तर प्रदेश और पंजाब प्रान्तों में जहॉं उर्दू का बोलबाला था, वहॉं हिन्दी घुसने लगी। आर्यसमाजियों के उर्दू अखबारोंे में भी लिपि यद्यपि अरबी थी किन्तु उसमें हिन्दी शब्दों की भरमार रहती थी। इस स्थिति में बहुधा द्वेषी लोग कह दिया करते थे कि आर्यसमाजी लोग हिन्दी के गीत उर्दू के माध्यम से गाते हैं। एक दूसरी स्थिति यह भी थी कि महिलाओं में जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार बढता गया वैसे-वैसे देवियों के पत्र-व्यवहार और पठन-पाठन में हिन्दी का प्रयोग बढता गया। उस समय के द्वेषी लोग हिन्दी को जननी भाषा कहकर अपने को उर्दू का पोषक कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। इस प्रकार घरों में आर्यसमाजों, गुरुकुलों और पाठशालाओं द्वारा पवित्र हिन्दी स्वतन्त्रता संग्राम के लिए उद्बोधन योग्य बन गयी। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सब कार्यक्रम प्राय: अंग्रेजी में सम्पादित होते थे। इसमें ज्यों-ज्यों आर्यसमाजियों का वर्चस्व बढता गया त्यों-त्यों हिन्दी का प्रयोग होने लगा। सन् 1919 में कांग्रेस का अधिवेशन अमृतसर में हुआ था। उस अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष थे स्वामी श्रद्धानन्द जी। कांग्रेस के इतिहास में स्वागताध्यक्ष का भाषण सर्वप्रथम हिन्दी में आर्यसमाजी संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा हुआ। उस अधिवेशन के पश्चात् हिन्दी की मानमर्यादा कांग्रेस में बढती गयी। आर्यसमाजी नेता जिस किसी पार्टी में सक्रिय हुए उनके साथ हिन्दी अवश्य गयी। भारत के संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद दिलाने में भी संविधान निर्मात्री सभा में तत्कालीन आर्यसमाजी विधायकों का बहुत बड़ा योगदान था। संविधान में राष्ट्रभाषा माने जाने पर भी हिन्दी की उपेक्षा को आर्यसमाज सहन नहीं कर सका। पंजाब में सन् 1957 का हिन्दी आन्दोलन इसी उपेक्षा का आक्रोश था। आर्यों ने हिन्दी के प्रति अपनी श्रद्धा भक्ति का अच्छा उदाहरण उस आन्दोलन में रखा था। भारत की संसद में स्वामी रामेश्वरानन्द जी की दहाड़ और पण्डित प्रकाशवीर शास्त्री का आर्कषक व्यक्तित्व और भाषण हिन्दी के लिए सर्वात्मना समर्पित रहा। देश का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि "रोग बढता गया ज्यों-ज्यों दवा की"। कुछ राष्ट्रीय प्रश्न जो स्वतन्त्रता के साथ-साथ हल हो जाने चाहिएँ थे वे आज भी प्रश्न बने हुए हैं। गो हत्या बन्द होने जैसी सर्वोपकारक मांग अब साम्प्रदायिक बन गयी है। दलितोद्धार जैसा मानवता का प्रश्न राजनीतिज्ञों के स्वार्थों का अखाड़ा बन गया है। इसी प्रकार हिन्दी जैसी सुललित, सुपठित भाषा राष्ट्रभाषा घोषित होने के पश्चात भी द्वितीय स्तर से ऊपर नहीं उठ सकी है। राजनीति के दांव-पेच से हिन्दी को उचित स्थान प्राप्त कराने का एक उपाय स्व. प्रकाशवीर जी शास्त्री ने सुझाया था-"हिन्दी का बाजार भाव बढना चाहिए"। बाजार भाव बढाने का काम सरकार नहीं कर सकती। सरकार कानून बना सकती है। किन्तु कानून की उपयोगिता, जनमानस में हिन्दी की आवश्यकता और विशेषता का मूल्यांकन स्पष्ट होने पर ही सार्थक होती हैे।
आर्यसमाज के अपने सवा सौ वर्ष के इतिहास में हिन्दी के प्रति की गयी सेवाएं गौरवपूर्ण रही हैं। दूसरी शताब्दी के प्रवेश के साथ-साथ आर्यसमाज का दृष्टिकोण बदल गया है। ऐसा लगता है देश के प्रत्येक नागरिक का चिन्तन अर्थप्रधान होता जा रहा है। जीवन के लिए अर्थ का चिन्तन और प्रधानता आवश्यक है। किन्तु कुछ मौलिक सिद्धान्त ऐसे भी हैं जो अर्थ से ऊपर हैं। अर्थ ही यदि सब कुछ मान लिया जाये तब आर्योंं की पितृयज्ञ और अतिथि यज्ञ अर्थहीन लगने लगेंगे। देश को स्वाधीन कराने वाले नेता और क्रान्तिकारी यदि अर्थ के पीछे दौड़ते तो देश और अधिक दासता में बन्धता चला जाता।
अब भी समय है कि आर्यसमाज अपने दायित्व को समझे। हिन्दी जो देश को जोड़ने की एक कड़ी है, इस कड़ी को आर्यसमाज ही सुरक्षित रख सकता है। हिन्दी की कड़ी के साथ दो कड़ियॉं और जोड़नी पड़ेंगी। महर्षि ने सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास में बालकों को देवनागरी अक्षरों की जानकारी के साथ-साथ अन्य देशीय भाषाओं की जानकारी का निर्देश किया है। तीसरा समुल्लास संस्कृत शिक्षण पर जोर देता है। इस प्रकार आर्य समाजों को अपना कार्यक्रम तीन भाषाओं में रखना अनिवार्य कर देना चाहिए। पहली भाषा हिन्दी, दूसरी भाषा संस्कृत, तीसरी भाषा स्थानीय अर्थात् प्रान्तीय भाषा। संस्कृत जहॉं हिन्दी और प्रान्तीय भाषाओं को जोड़ने का काम करेगी वहॉं अन्तरराष्ट्रीय जगत् में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कराएगी। विदेशियों ने संस्कृत को सशक्त भाषा जानकर ही इसे मृतभाषा घोषित करने का षड्यन्त्र किया था। बहुत सीमा तक उनका षड्यन्त्र सफल भी रहा, किन्तु अब भी समय है कि संस्कृत को विश्व की भाषाओं में गौरव प्राप्त कराय जाये। आर्थिक उपयोगिता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। महर्षि ने गाय की उपयोगिता को "गोकरुणानिधि" पुस्तक से प्रस्तुत किया था। स्व. प्रकाशवीर शास्त्री ने हिन्दी का बाजार भाव बढाने का संकेत दिया था। वह कब होगा? जब तक हिन्दी के पक्ष में आर्यसमाज का प्रबल समर्थन रहेगा। तीन भाषाओं को अपनाने से भाषावाद, अलगाववाद समाप्त होगा। हिन्दी और प्रान्तीय भाषाओं को संस्कृत का अपरिमित शब्द भण्डार मिलेगाऔर विज्ञान के लिए मार्ग प्रशस्त होगा। आर्यसमाज का द्विभाषा फार्मूला ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और संस्कारविधि में उपयोगी हो सकता है तो कोई कारण नहीं कि तीन भाषाओं का प्रयोग सफल न होगा। आर्यसमाज के प्रति कही गयी पंक्तियॉं हमें सतर्क करती हैं। जब आर्यसमाज दौड़ता है तब देश चलता है, जब आर्यसमाज खड़ा होता है तब देश बैठता है। जब आर्यसमाज बैठता है तब देश सोया रहता है। जब आर्यसमाज सो जाएगा तब देश का न जाने क्या होगा । - गजानन्द आर्य
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Arya Samaj is a universal institution. The Aryasamaj of the country in which the Arya Samaj is the language of the citizens of the same country, the Aryasamaj of the same language is considered as its national language Unfortunately, that universal form of Arya Samaj has not yet been created, which was expected by Maharishi Dayanand Saraswati. There are Aryasamajas abroad, but most of the Aryasamajis are overseas Indians. Aryasamaj could not flourish in the origin of foreigners.
आर्यों का मूल निवास आर्यों के मूल निवास के विषय में महर्षि दयानन्द का दृढ कथन है कि सृष्टि के आदि में मानव तिब्बत की धरती पर उत्पन्न हुआ था। तिब्बत में पैदा होने वालों में आर्य भी थे और दस्यु भी थे। स्वभाव के कारण उनके आर्य और दस्यु नाम हो गये थे। उनका आपस में बहुत विरोध बढ गया, तब आर्य लोग उस...
नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...