हमारी संस्कृति के अनुसार इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के मूल में जो महाशक्तियॉं विद्यमान हैं उन्हें पुरुष और प्रकृति के नाम से जाना जाता है। वेदान्तवादियों के अनुसार उन्हें ब्रह्म और माया कहा जाता है। जबकि तन्त्रविद्या के प्रणेताओं ने उन्हें शिव और शक्ति के नाम से अभिहित किया है। पुरुष और नारी इन्हीं दोनों शक्तियों का व्यष्टि रूप माने जाते हैं। यही कारण है कि हमारी संस्कृति में ईश्वर की कल्पना अर्धनारीश्वर के रूप में की गई है। जब तक पुरुष, स्त्री को सच्चे अर्थों में मनसा-वाचा-कर्मणा अपनी अर्धांगिनी स्वीकार नहीं करता तब तक वह पुरुष की संज्ञा का पात्र नहीं हो सकता। हमारी परम्परा के अनुसार यज्ञ जैसे पुनीत कार्यों में भी पति और पत्नी दोनों की उपस्थिति अपेक्षित है। परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि वेदमन्त्रों के अर्थ का अनर्थ करने वाले कुछ स्वार्थी तत्त्वों ने नारियों को वेदमन्त्रों के अध्ययन तक के अधिकार से वंचित करने का दुस्साहस किया। वे यह भूल गए कि ऋषिकाओं द्वारा आत्मसात् की जाने वाली ऋचाओं के अध्ययन के बिना वेद का पूर्ण ज्ञान असम्भव है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि वैदिक काल में नारियों को मात्र वेदाध्ययन का ही अधिकार नहीं था, अपितु वे मन्त्रद्रष्ट्री बनने की भी अधिकारिणी थी। यही युग था जब जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष और नारी की सहभागिता और सहकारिता का समारम्भ हुआ।
Ved Katha Pravachan - 8 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
स्वामी दयानन्द के नारी शिक्षा विषयक विचार पूर्णरूपेण तत्सम्बन्धी वैदिक मान्यताओं से प्रेरित ही नहीं अपितु नि:सृत भी हैं। पूना प्रवचनमाला के तृतीय प्रवचन में स्त्रीशिक्षा सम्बन्धी अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने वर्तमान समाज से आग्रह किया है कि यदि वे सच्चे अर्थों में वैदिक काल में स्त्रीशिक्षा को प्राप्त महत्व से परिचित होना चाहते हैं तो उन्हें आर्य लोगों के इतिहास की ओर देखना चाहिए, जिसमें स्त्रियों के आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का उल्लेख मिलता है। उनके उपनयन और गुरु-गृह में वास के संस्कारों की चर्चा उपलब्ध होती है। इस सत्य की सिद्धि के लिए उन्होंने गार्गी, सुलभा, मैत्रेयी, कात्यायनी आदि विदुषियों का उदाहरण दिया है जो बड़े-बड़े ऋषियों एवं मुनियों की शंकाओं का समाधान करती थीं। इसके अतिरिक्त ऐसी अन्य बहुत सी ऋषिकाएं हैं जो मन्त्रों को आत्मसात् करने में सफल रहीं। वस्तुत: स्वामी दयानन्द ने स्त्रीशिक्षा की आवश्यकता का जो महत्व सिद्ध किया है वह सर्वथा वेदसम्मत है।
स्वामी जी से पहले स्त्रीशिक्षा का प्रचार लगभग लुप्तप्राय हो गया था। "स्त्रीशूद्रौ नाधीयातामिति श्रुते:" की भ्रान्ति लगभग प्रचलित हो चुकी थी, स्वामी जी इसके पक्षधर नहीं थे। उन्होंने इसका विरोध करते हुए कहा था कि शिक्षा मनुष्यमात्र का अधिकार है। जो लोग स्त्रियों के पढने का निषेध करते हैं वे सर्वथा मूर्ख, स्वार्थी और निर्बुद्धि हैं। स्वामी जी ने बालक और बालिकाओं की शिक्षा की अनिवार्यता और उन्हें शिक्षा से वंचित रखने के लिए उनके माता-पिता की दण्डनीयता का समर्थन करते हुए लिखा है- "इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवें और आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर पर न रखे। पाठशाला में अवश्य भेज देवें, जो न भेजें वे दण्डनीय हों।" उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि राजा को ऐसा यत्न करना चाहिए जिससे सब बालक और बालिकाएं ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हुए विद्यायुक्त होकर समृद्धि को प्राप्त हों तथा सत्य, न्याय और धर्म का निरन्तर सेवन करें। इस कथन में विद्या शब्द का उल्लेख मिलता है। विद्या को केवल उस शिक्षा का पर्याय नहीं कहा जा सकता जो मात्र अक्षरबोध, लिपिबोध और गणित बोध तक ही सीमित हो। विद्या से तात्पर्य है, शिक्षा और संस्कार दोनों का समन्वय। भारतीय शिक्षा-पद्धति के मूल में यही अवधारणा है। क्योंकि यहॉं केवल अक्षर बोध, लिपि बोध और गणित बोध को अविद्या कहा गया है। आत्मोत्थान विषयक ज्ञान को विद्या माना गया है । तदनुसार मानव का पूर्णत्व विद्या और अविद्या के समन्वय में दर्शाया गया है। आज की शिक्षा का उद्देश्य केवल जीवनोपयोगी साधनों के उपार्जन में सहायक ज्ञान तक सीमित रह गया है। शिक्षक हो अथवा शिक्षार्थी दोनों का शिक्षाविषयक उद्देश्य एक है और वह है भौतिक सुख-समृद्धि में आसक्ति तथा उसकी प्राप्ति। इसी के दुष्परिणामों को देखते हुए नैतिक शिक्षा की अपेक्षा बल पकड़ती जा रही है। समस्त आर्यसमाजी गुरुकुलों और पाठशालाओं में इसका प्रावधान भी किया गया है, परन्तु विश्वविद्यालयीय स्तर पर जब तक इसे एक अनिवार्य विषय का स्थान प्राप्त नहीं होता तब तक स्वामी दयानन्द का स्त्री शिक्षाविषयक आदर्श कार्यान्वित नहीं हो सकता। इसी सत्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने ऋग्वेद का उद्धरण देते हुए कहा है-"जितनी कुमारी हैं वे विदुषियों से विद्याध्ययन करें और वे ब्रह्मचारिणी कुमारी उन विदुषियों से ऐसी प्रार्थना करें कि आप हम सबको विद्या और सुशिक्षा से युक्त करें।"
यह तो सर्वथा स्पष्ट है कि शिक्षा से स्वामीजी का अभिप्राय इसे केवल अक्षरबोध, लिपिबोध, गणितबोध और अन्य विज्ञान तथा वाणिज्य की शाखाओं के बोध तक सीमित रखना नहीं है। वे शिक्षा को चरित्र-निर्माण का आधार मानते थे। उनका मत था कि यदि माता-पिता अपने पुत्र तथा पुत्रियों को अच्छी शिक्षा देकर, तत्पश्चात विद्धान् और विदुषियों के समीप बहुत काल तक रखकर पढावें तब वे कन्या और पुत्र सूर्य के समान अपने कुल और देश के प्रकाशक हों। (यजुर्वेद भाष्य 11.36) सुशिक्षा के महत्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है-जैसे माताएं सन्तानों को दूध आदि देकर बढाती हैं वैसे ही विदुषी स्त्रियॉं और विद्वान् पुरुष कुमारियों और कुमारों को विद्या और अच्छी शिक्षा देकर बढाएं। उन्होंने विद्या और शिक्षा को मनुष्य के मानसिक और आध्यात्मिक विकास का आधार स्वीकार किया है। दूसरे शब्दों में स्वामी दयानन्द उस वैदिक मान्यता के समर्थक हैं, जिसके अनुसार विद्या और अविद्या का समन्वय पूर्णत्व प्राप्ति का साधन हो सकता है। स्वामी दयानन्द शिक्षा को मनुष्य के सर्वांगीण विकास का स्रोत मानते थे। ब्रह्मचर्य जीवन पर पुन:-पुन: दिया गया बल उनके इस विश्वास को स्वयं स्पष्ट कर देता है कि शिक्षा वह साधन है जिसका उपार्जन समाज के सर्वांगीण विकास के लिए अनिवार्य है। जब तक स्त्रियॉं इस क्षेत्र में पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने में समर्थ नहीं हो जाती तब तक समाज का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं। शिक्षा की अनिवार्यता के साथ-साथ उन्होंने इस क्षेत्र में गुरु और गुरुपत्नी के दायित्वों की भी चर्चा की है। उनके अनुसार गुरु और गुरुपत्नी को चाहिए कि वे वेद और उपवेद तथा वेद के अंग और उपांगों की शिक्षा से देह, इन्द्रिय, अन्त:करण और मन की शुद्धि, शरीर की पुष्टि तथा प्राण की सन्तुष्टि देकर समस्त कुमार और कुमारियों को अच्छे गुणों में प्रवृत्त करावें। (यजुर्वेद भाष्य 6.14)
वस्तुत: स्वामी जी दैहिक, एन्द्रियिक, मानसिक और प्राणविषयक विकास को शिक्षा का अंग मानते थे और गुरु तथा गुरुपत्नी को इनके उपार्जन का स्रोत। उन्होंने स्त्रीशिक्षा के विरोधियों को निरुत्तर करने के लिए "इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्" उद्धरण का आश्रय लिया है। शतपथ ब्राह्मण में स्पष्टतया उल्लेख मिलता है कि जहॉं पुरुष विद्वान् और स्त्री अविदुषी होगी अथवा स्त्री विदुषी और पुरुष अविद्वान् रहेगा तो घर में नित्यप्रति देवासुर संग्राम मचा रहना स्वाभाविक है। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास) उनके अनुसार पुरुषों की भांति स्त्रियों के लिए भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या का ज्ञान अनिवार्य है, क्योंकि इसके बिना सत्य-असत्य का निर्णय, अनुकूल व्यवहार, यथायोग्य सन्तानोत्पति, उसका पालन, वर्धन और सुशिक्षा सम्भव नहीं। इन शाखाओं के अध्ययन के साथ-साथ स्त्रियों के लिए पाकविधि सीखने का भी आग्रह किया गया है। (यजुर्वेद भाष्य 11.59) उन्होंने परामर्श दिया है कि शिक्षा के लिए लड़कों को पुरुषों की और लड़कियों को स्त्रियों की पाठशाला में जाकर ब्रह्मचर्य की विधिपूर्वक सुशीलता से विद्या और भोजन बनाने की क्रिया सीखनी चाहिए।
स्वामी जी के शिक्षा-सम्बन्धी विचार भारतीय संस्कृति के सर्वथा अनुरूप हैं। तदनुसार ही उन्होंने ईश्वरीय ज्ञान वेद की शिक्षा को सर्वोपरि प्राथमिकता देने का आग्रह किया है। इस बात पर भी बल दिया है कि कन्याओं की शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक है जितनी कि बालकों की। वे विदेशी भाषाओं की शिक्षा के विरुद्ध नहीं हैं, परन्तु यह मानते हैं कि वे भाषाएं अपनी भाषा के साथ सहायक रूप में सीखी जाएं।
उनके अनुसार गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का ध्येय विभिन्न विद्याओं और अविद्याओं में निपुणता प्राप्त करने के साथ-साथ चरित्र-निर्माण की दिशा में छात्रों का उचित मार्गदर्शन करना भी है। यही कारण था कि विदेशी शासकों की वक्रदृष्टि होते हुए भी गुरुकुल शिक्षा संचालकों ने अपनी शिक्षा नीति में विदेशी शासन का हस्तक्षेप कभी स्वीकार नहीं किया और अपने परिश्रम और जनसामान्य के सहयोग से, बिना किसी शासकीय आर्थिक अनुदान के इन संस्थाओं को प्रगतिपथ पर अग्रसर किया। स्वामी दयानन्द के द्वारा स्त्री-शिक्षा के प्रचार और प्रसार के लिए किए गए उपादेय योगदान के फलस्वरूप आज सरकार ने छात्राओं के लिए स्नातक स्तर तक की शिक्षा नि:शुल्क कर दी है। आज माता-पिता अपनी पुत्रियों को शिक्षा दिलाने के लिए उतने ही उत्सुक हैं जितने कि पुत्रों को। यह उन्हीं के द्वारा प्रचारित नारी शिक्षा और नारी-स्वातन्त्र्य की विचारधारा का परिणाम है कि आज भारतीय ललनाएं केवल वायुसेना के प्रतिष्ठित पदों पर ही नहीं अपितु अन्तरिक्ष तक की सफल यात्रा करने में सफल हो रही हैं। वे हिमालय के उच्चतम शिखर पर सफल अभियान करने में विश्व में अपना कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैं।
वस्तुत: शिक्षा हमें मानव संस्कृति के आधारभूत शाश्वत संस्कारों से युक्त करती है। भारतीय नारी केवल अपने अधिकारों के लिए ही प्रबुद्ध नहीं है। स्वामी जी ने स्त्रियों को अध्यापिकाओं के पद पर नियुक्त करने का परामर्श देते हुए कहा था कि कन्याओं के विद्यालयों में केवल स्त्री अध्यापिकाओं की नियुक्ति की जाए। उनके अपने शब्दों में "सब विद्वान् जन अपनी-अपनी विदुषी स्त्री के प्रति ऐसा उपदेश दें कि तुम्हें सबकी कन्याओं को पढाना चाहिए और सब स्त्रियों को सुशिक्षित करना चाहिए। (ऋग्वेद भाष्य 1.41.17) इस उद्धरण में स्त्रियों को सुशिक्षित करने वाली बात यह सिद्ध करती है कि स्वामी दयानन्द प्रौढ स्त्री-शिक्षा के भी पक्षधर थे। उन्होंने विदुषी स्त्रियों को कुमारी कन्याओं की विद्या, सुशिक्षा और सौभाग्य में वृद्धि के लिए उतना ही लाभकारी माना है जितना कि जागते हुए मनुष्यों के लिए प्रभातवेला गुणकारी होती है। (यजुर्वेद भाष्य 34.40) उनके अनुसार विदुषी अध्यापिका को भूमि के तुल्य क्षमाशील, लक्ष्मी के तुल्य शोभायमान, जल के तुल्य शान्त और सहेली के तुल्य उपकारक होना चाहिए। (ऋग्वेद भाष्य 4.70.7)
अध्यापन कार्य उनके गृहस्थकर्त्तव्य सम्पादन में बाधक न हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने लिखा है कि श्रेष्ठ स्त्रियों को उचित है कि वे अच्छी शिक्षित परिचारिकाओं को रखें, जिससे सब पाक आदि की क्रिया और सेवा समय पर हो सके। परिचारिका का गुणोल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि यह प्रीतियुक्त, सुकेशिनी, सुन्दर श्रेष्ठ कर्म करने वाली और पाकविद्या में नियुक्त होनी चाहिए। (यजुर्वेद भाष्य 11.56)
निष्कर्षत: स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में स्त्रीशिक्षाविषयक जो विचार अभिव्यक्त किए हैं वे वैदिक संहिताओं में प्रतिपादित स्त्रीशिक्षाविषयक धारणाओं का अनुमोदन करते हैं और उनकी सार्वकालिक और सार्वभौमिक प्रासंगिकता की सिद्धि में सर्वथा सहायक सिद्ध होते हैं। वास्तव में हमारे देश में स्त्रीशिक्षा का ह्रास यवन आक्रमण काल में ही प्रारम्भ हुआ था। दासता के उत्तरोत्तर कसते हुए शिकंजे ने हमारे पुरुष समाज को स्त्री शिक्षा के प्रति उदासीन होने के लिए विवश कर दिया था। दासता मनुष्य की मानसिकता के लिए उतनी ही हानिकारण है जितना कि पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए ग्रहण। स्वतन्त्रता से जिस राष्ट्रीयता की भावना का जागरण वांछित था, स्वतन्त्रता आन्दोलन की सफलता के लिए नारियों द्वारा जो योगदान अपेक्षित था, वह तभी सम्भव हो पाया जब स्वामी दयानन्द ने अपने स्त्रीशिक्षा समर्थक विचारों को कार्यान्वित करने के लिए उद्बुद्ध भारतीय नागरिकों को आर्य कन्या पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों की स्थापना करने की प्रेरणा देकर नारी को देश के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए सामर्थ्य प्रदान करने का अवसर दिया। इस क्षेत्र में उनका योगदान सदा-सर्वदा स्मरणीय रहेगा। डी.ए.वी.पब्लिक स्कूलों, पाठशालाओं, विद्यालयों और महाविद्यालयों की उत्तरोत्तर बढती हुई संख्या इस तथ्य को स्वयं सिद्ध करती जान पड़ती है। उनके स्त्रीशिक्षाविषयक विचार हमें उनके राष्ट्रप्रेम, स्त्रीकल्याण के प्रति उत्साह और समाज कल्याण विषयक अदम्य प्रवृत्ति से परिचित कराने में सर्वथा समर्थ हैं। - डॉ. श्रीमती इन्दु शर्मा
नवदृष्टिकोणदाता
महर्षि दयानन्द के उपदेशों ने करोड़ों लोगों को नवजीवन, नव चेतना और नव-दृष्टिकोण प्रदान किया है। उन्हें श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए हमें व्रत लेना चाहिए कि उनके बताये गये मार्ग पर चल कर हम देश को सच्ची सुख-शान्ति से वैभवपूर्ण बनायेंगे।- प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद
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Swami Dayanand's ideas about women's education are not only inspired by Vedic beliefs, but also disembodied. In the third sermon of Poona Pravachanamala, while expressing his views related to female education, he has urged the present society that if they really want to get acquainted with the importance of female education in Vedic period, then they should look at the history of Aryans, in which There is a mention of observance of women's birth celibacy fast.
आर्यों का मूल निवास आर्यों के मूल निवास के विषय में महर्षि दयानन्द का दृढ कथन है कि सृष्टि के आदि में मानव तिब्बत की धरती पर उत्पन्न हुआ था। तिब्बत में पैदा होने वालों में आर्य भी थे और दस्यु भी थे। स्वभाव के कारण उनके आर्य और दस्यु नाम हो गये थे। उनका आपस में बहुत विरोध बढ गया, तब आर्य लोग उस...
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मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...