महर्षि जैमिनी के पश्चात् ऋषि परम्परा में स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रथम महापुरुष हैं, जिन्होंने शाश्वत सनातन तथा सार्वभौम मानव-धर्म वेद धर्म की दुहाई ही नहीं दी, अपितु उसके लोप होने के परिणामस्वरूप उत्पन्न संसार के समस्त मत, तन्त्र तथा सम्प्रदायों की विधिवत् समीक्षा की (सत्यार्थप्रकाश 11 से 14 वें समुल्लास तक)। वह स्वयं स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में लिखते हैं- "ब्रह्मा से लेकर जैमिनी पर्यन्त ऋषि-मुनियों द्वारा अनुमोदित और प्रतिपादित सनातनधर्म ही हमारा धर्म है। इसे मानना व मनवाना अपना अभीष्ट है।
Ved Katha Pravachan - 7 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
किन्तु कोई भी नूतन मत, पन्थ अथवा सम्प्रदाय चलाने की किञ्चित्मात्र भी इच्छा नहीं है।" ऐसा लिखने में उनका हेतु उनके शब्दों में स्पष्ट है। "सर्व सत्य का प्रचार कर सबको एक मत में करा, द्वेष छुडा परस्पर में दृढ प्रीतियुक्त कराके सब को सुख लाभ पहुँचाने के लिए मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है।" इस कथन में उनके हृदय में विश्व-शान्ति के लिए एक ठोस रचनात्मक पुरोगम की स्पष्ट आभा मिलनी है। संसार में अशान्ति के हेतु दो ही मौलिक हेतु हो सकते हैं। प्रथम भोग सामग्री की वितरण व्यवस्था और द्वितीय भोक्ता का भोग के साथ सम्बन्ध। प्रथम स्थिति का समाधान सामाजिक क्रान्ति तथा राजनैतिक उथल-पुथल से होता रहता है। द्वितीय के लिये स्थान, समय तथा परिस्थिति के आधार पर पुरुष विशेष द्वारा उपस्थित विचार तथा विधि कार्य करते हैं। पहले के विस्तार स्वरूप राजतन्त्र से लेकर लोकतन्त्र तक की व्यवस्थाओं का प्रादुर्भाव हुआ और दूसरे के विस्तार स्वरूप मत, ग्रन्थ तथा सम्प्रदाय में रूप में पारसी, ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैन इत्यादि आचार पद्धतियों का प्रादुर्भाव हुआ। (जिन्दावस्ता, बाइबिल, कुरान, धम्मपद, त्रिपिटक)। इन्हीं दोनों पाटों के बीच विश्व की शान्ति पिसती रही और आज अपने शिखर पर पहुँच चुकी है। विश्व में अशान्ति के मूल कारणों में दो प्रमुख हैं। राजनीतिक मान्यताओं की रस्सा-कसी और मत-मतान्तरों की संख्या वृद्धि में होड की प्रवृत्ति। विश्व के इतिहास में जारशाही और उसका दु:खद अन्त एक ओर है, तो ईसाई मत की ही दो शाखाओं कैथलिक और प्रोटेस्टेण्ट के मध्य की रक्त-रंजित बीभत्स गाथाएँ दूसरी ओर हैं। इस प्रकार जब दोनों ओर की स्थिति अत्यन्त भयावह तथा विनाशकारी स्वरूप में विद्यमान थीं तब इस धरा-धाम पर बाल-ब्रह्मचारी युगपुरुष, क्रान्ति-द्रष्टा भगवान् दयानन्द का प्रादुर्भाव आर्यावर्त की पवित्र ऋषि भूमि में सम्पूर्ण अविद्या तथा अज्ञान का नाश करके विश्व-शान्ति स्थापनार्थ उन्नीसवीं सदी के मध्य में हुआ।
महर्षि दयानन्द दया का था सागर, जगत की व्यथा का दवा बनने आया।
तिमिर छा रहा था अविद्या का घर-घर, गगन में दिवाकर नया बनके आया।।
महर्षि ने सिंहनाद किया कि "मेरा अपना मन्तव्य वही है जो सबको तीन काल में एक-सा मानने योग्य है। मेरी कोई अपनी नवीन कल्पना नहीं है, अपितु जो सत्य है उसे मानना और मनवाना और जो असत्य है उसे छोडना और छुड़वाना अपना अभीष्ट है।" इसी सत्य के प्रकाशन सन्दर्भ में उन्होंने विश्व के समस्त नागरिकों के लिए एक अन्तरराष्ट्रीय राजनैतिक जय घोष दिया-"अपने देश में अपना राज्य"। इस प्रकार संसार के समस्त पराधीन राष्ट्रों को एक नूतन चेतना तथा स्फूर्ति इस दिशा में प्राप्त हुई और अपने देश के साथ ही अन्य पराधीन राष्ट्र भी स्वाधीनता के लिए खड़े हो गये। अनेकों ने परिणामस्वरूप वर्षों की दासता से मुक्ति पाई। यह सब भगवान् दयानन्द के एक मन्त्र का चमत्कार है। उर्दू के एक कवि ने ठीक ही कहा है -
तू नहीं, पैगाम तेरा हर किसी के दिल में है।
जल रही अब तक शमा रोशनी महफिल में है।
महर्षि ने इस दिशा में स्थायित्व लाने के निमित्त एक आन्दोलन का भी सूत्रपात किया- वह था संसार के श्रेष्ठ पुरुषों का संसार के कल्याण के लिए एक वेदी पर उपस्थित होना। इस आन्दोलन को निरन्तर चालू रखने के लिये संगठन का गठन भी किया जिसे "आर्यसमाज" अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों का संगठन “Society of the noble men” कहते हैं। महर्षि ने इस आन्दोलन के तीन चरण निश्चित किये- एक ईश्वर, एक धर्म तथा एक विश्व “One God, One Religion and one world” संसार में अनेक महापुरुषों ने इस दिशा में अपनी योग्यता तथा क्षमता के अनुसार कार्य किया किन्तु इस मौलिक त्रिसूत्र के अभाव में उनके सम्पूर्ण प्रयास विफल रहे। उदाहरण स्वरूप मार्क्स का सर्वहारा दर्शन तथा गॉंधी जी का सर्वोदय। यहॉं एक ईश्वर से तात्पर्य एक प्राप्तव्य- “One distinction and one God” से है। एक धर्म से अभिप्राय एक आचरण-संहिता से है और एक विश्व से अर्थ एक परिवार से है। जिस प्रकार से एक परिवार में रहने वालों का एक आदर्श इसकी प्राप्ति का एक माध्यम अर्थात् सभी साधकों के साधन तथा साध्य का सामञ्जस्य। महर्षि ने इसके लिए तर्क, युक्ति, प्रमाण तथा प्रयोग के आधार पर संसार के प्रमुखतम आचार्यों से वार्ता की और अपेक्षित प्रयास भी किया। उनके शब्दों में विश्व की अशान्ति का मूल कारण इस प्रकार के भेदों के माध्यम से उत्पन्न होने वाला घृणा और द्वेष का वातावरण ही है। "यद्यपि प्रत्येक मत, पन्थ तथा सम्प्रदाय में कुछ-कुछ अच्छी बातें हैं तथापि आचार्यो में परस्पर मतभेद होने के कारण अनुयायियों में मतभेद कई गुणा बढकर घृणा और द्वेष की उत्पत्ति करता है। क्या ही अच्छा हेाता कि सभी आचार्य प्रवर एक स्थल पर बैठकर मनुष्यमात्र के लिए सर्वतन्त्र, सर्वाभौम तथा सनातन नियमों का संकलन कर पाते, जिससे मानव समाज घृणा और द्वेष से मुक्त होकर श्रृद्धा और स्नेह की पवित्र स्थिति को प्राप्त होता।" उन्होंने चॉंदपुर (उत्तर-प्रदेश) में एक धर्म मेला के अन्दर इस प्रकार के विचार-विमर्श की व्यवस्था भी की। उसमें पादरी, मौलाना, पण्डित सभी उपस्थित थे। महर्षि ने तर्क, युक्ति, प्रमाण और प्रयोग से उन सबको सहमत न होते देख अन्ततोगत्वा एक अद्वितीय विधि उपस्थिति की। सब अपने-अपने मत के श्रेष्ठ विचार पृथक्-पृथक् पत्रों पर लिखें। पुन: सबको एक साथ एकत्रित किया जाये और जो-जो विचार तथा आचार उपस्थित हों उनमें से सर्वमान्य विचार-आचार एक स्थल पर संकलित कर लिये जावें और हम सब उन पर हस्ताक्षर कर देवें, जिससे यह आचरण संहिता संसार के सभी मनुष्यों के लिए मान्य, व्यावहारिक तथा उपयोगी घोषित हो जावे और इस प्रकार परस्पर विभिन्न मत मतान्तरों के आधार पर विभाजित मानव समाज एकता के सूत्र में बन्धकर विश्व में शान्ति स्थापित कर सके। उपस्थित किसी भी प्रतिनिधि (हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई तथा ब्रह्म-समाज) ने इसका स्वागत अपने क्षुद्र स्वार्थ तथा नेतागिरि के कारण नहीं किया।
महर्षि भौतिक जगत् में भी अर्थ के दूषित वितरण के परिणाम का समाधान बताते हैं जो आज की समस्या का एकमात्र हल है। आज मजदूर जहॉं एक ओर कम से कम काम करना चाहता है, वहीं दूसरी ओर अधिक से अधिक वेतन चाहता है और इसी प्रकार महाजन जहॉं एक ओर अधिक से अधिक काम लेना चाहता है,वहीं दूसरी ओर कम से कम वेतन देना चाहता है । तात्कालिक समाधान के रूप में इस विषम मनोवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही मजदूर यूनियन, कर्मचारी संघ तथा मर्चेण्ट एसोसियेशन का विश्व में जाल बिछा दीखता है। समाधान तो ऋषि इसे पूर्णतया उलट देने में मानते हैं। अर्थ क्या हुआ? मजदूर अधिक से अधिक काम करें और कम से कम वेतन लेने की इच्छा रखें और महाजन कम से कम काल लेकर मजदूरों को अधिक से अधिक देने की कामना करें।
विश्व-शान्ति के लिए व्यक्ति को कम से कम समाज से लेना होगा और अधिक से अधिक समाज को देना होगा तभी वर्तमान अशान्ति, अनिश्चिन्तता तथा अराजकता का अन्त होगा अन्यथा कदापि नहीं। मुझे कहने दीजिए- आज हमें भोग में बासा-होटल की प्रवृत्ति से हट कर परिवार में पाकशाला प्रवृत्ति में आना होगा। हम जब होटल में भोजन करते हैं तो कम से कम होटल वाले को देकर अधिक से अधिक खा लेना चाहते हैं। किन्तु जब हम परिवार में भोजन करते हैं तो कम से कम खाकर अधिक से अधिक परिवार के अन्य सदस्यों के लिए छोड़ना चाहते हैं। ऐसा मन कब बनेगा? जब तन के निखार निमित्त दर्पण की भांति हमें मन के सुधार के लिए दर्शन मिलेगा। यह दर्शन जिस आचरण-संहिता में उपलब्ध है वह परमात्मा द्वारा प्रद्त्त अपनी प्रजा के निमित्त विधि-निषेधात्मक वेदज्ञान है, जो सम्पूर्ण सृष्टि की अवधि के भीतर (चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष) उपस्थित विश्व के सभी श्रेष्ठतम उपभोक्ताओं मनुष्यमात्र के लिए समान रूप से सुखदायक तथा उपयोगी है। उससे हम न्यूनतम परिश्रम द्वारा अधिकतम सुख की प्राप्ति कर सकते हैं। इसे उपभोग के नियम-“Laws of Consumption”कहते है। इसके अनुकूल चलकर हम शाश्वत सुख-आनन्द-मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं, जो मानवमात्र का एकमात्र अभीष्ट लक्ष्य है। इस आचरण-संहिता का प्रमुख भाग कर्मफल मीमांसा कहलाता है। दर्शनकारों की व्यवस्था में आयु, जाति तथा भोग मनुष्य को पूर्व जन्म के आधार पर ही मिलते हैं। यहॉं जाति शब्द का तात्पर्य योनि-पशु, पक्षी, पतंगा, मनुष्य आदि से है। भोग दो प्रकार के हैं- एक सुखद तथा दूसरा दु:खद। दु:खद भोग में हम किसी प्रकार का सहयोग प्राप्त कर ही नहीं सकते। कौन होगा ऐसा जो मेरे पचास बेंत के दण्ड में कुछ स्वयं सहन कर मेरा सहयोग करना चाहेगा। किन्तु सुखद भोग में हम किसी को भी अपना भागीदार बना सकते हैं और कोई भी भागीदार बनने को तैयार हो सकता है। उदाहरणार्थ मेरे पास भोग के पच्चीस आम हैं। हम सब स्वयं भी खा सकते हैं और इनमें से आवश्यकतानुसार तथा इच्छानुसार चार आम खाकर शेष इक्कीस आम किसी को भी खाने को दे सकते हैं। स्वयं सम्पूर्ण खा जाने पर भोग मूलतया समाप्त हो जाता है। किन्तु कुछ खाकर और शेष दूसरों को खिलाकर हम दूसरों को खिलाये हुये आमों के भोग के द्वारा अपने लिये नूतन कर्म का सृजन कर लेते हैं, जो हमें पुन: इस जन्म अथवा दूसरे जन्म में मिलेगा। इस दर्शन के प्रचार और प्रसार में प्रत्येक व्यक्ति खाने के चक्कर से निकल कर खिलाने की होड़ में खड़ा हो जायेगा। तब विश्व में अशान्ति का प्रश्न ही नहीं रहेगा और स्थायी शान्ति स्वत: उपस्थित हो जायेगी। आज हम व्यवहार पक्ष में ऐसा मानते हैं- “Foolishmen invite or wisemen eat” मूर्ख व्यक्ति खिलाते हैं और बुद्धिमान व्यक्ति खाते हैं। किन्तु स्थिति तब बदल जावेगी और नई लोकोक्ति तैयार होगी- “Wise men invite and foolishmen eat” बुद्धिमान व्यक्ति खिलाते हैं और मूर्ख व्यक्ति खाते हैं। परिणाम स्वरूप समस्त मानव समाज एक परिवार की संज्ञा को प्राप्त हो जायेगा, जिसका प्रत्येक सदस्य कम से कम उपयोग करके अधिक से अधिक दूसरों के उपभोग निमित्त छोड़ने में अपने सम्पूर्ण विवेक और कौशल को लगा देगा, जिससे विश्व-शान्ति का महर्षि कल्पित रूप साकार हो उठेगा।
"अपनी आवश्यकता से अधिक पर अपना अधिकार मानना सामाजिक हिंसा है।" इससे बचना ही विश्व-शान्ति का एकमात्र हल है। - आर्यभिक्षु
सत्यार्थ प्रकाश महान् देन
स्वामी दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्व-प्रथम योद्धा, हिन्दू जाति के रक्षक थे। उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने राष्ट्र की महान् सेवा की है और कर रहा है। आजादी की लड़ाई में आर्यसमाजियों का बड़ा हाथ रहा है। महर्षि जी का लिखा अमर ग्रन्थ "सत्यार्थप्रकाश" हिन्दू जाति की रगों में उष्ण रक्त का संचार करने वाला ग्रन्थ है। "सत्यार्थप्रकाश" की विद्यमानता में कोई विधर्मी अपने मजहब की शेखी नहीं बघार सकता। - वीर सावरकर
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The Maharshi pleaded that "My own intention is that which is acceptable to everyone in three periods. I have no new imagination, but it is my intention to accept and persuade what is true and leave it untrue. "In reference to the publication of this truth, he gave an international political Jai Ghosh to all the citizens of the world - "Own state in our country".
नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...