लोगों से पुजाने का यह पाखण्ड बड़ी ही नीच मनोवृत्ति का परिचायक है। स्वामी जी ने शैव, शाक्त और वैष्णव आदि मतों की खबर तो ली ही है, हिन्दी साहित्य के महाकवि कबीर तथा दादू आदि को भी बहुत बुरी तरह फटकारा है। आपका कहना हैं- "पाषाणादि को छोड़ पलंग, गद्दी, तकिए, खड़ाऊँ, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाण-मूर्ति से न्यून नहीं। क्या कबीर साहब भुनगा था वा कली था, जो फूल हो गया? जुलाहे का काम करता था, किसी पण्डित के पास संस्कृत पढने के लिए गया, उसने उसका अपमान किया। कहा हम जुलाहे को नहीं पढाते। इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा, परन्तु किसी ने न पढाया, तब ऊट-पटॉंग भाषा बनाकर जुलाहे आदि लोगों को समझाने लगा। तम्बूरे लेकर गाता था, भजन बनाता था, पण्डित, शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फंस गए। जब मर गए, तब सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते-जी बनाया था, उसको उसके चेले पढते रहे। कान को मून्दकर जो शब्द सुना जाता है, उसको अनहद शब्द-सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को सुरति कहते हैं, उसको उस शब्द के सुनने में लगाया, उसी को संत और परमेश्वर का ध्यान बतलाते हैं, वहॉं काल नहीं पहुंचता। बर्छी के समान तिलक और चन्दनादि लकड़ी की कण्ठी बांधते हैं। भला विचार के देखो, इससे आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ सकता है?"
Ved Katha Pravachan -5 (Rashtra & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
इसी प्रकार नानक जी के सम्बन्ध में भी आपने कहा है कि उन्हें संस्कृत का ज्ञान न था, उन्होंने वेद पढने वालों को तो मौत के मुंह में डाल दिया है और अपना नाम लेकर कहा है कि नानक अमर हो गए, वह आप परमेश्वर हैं। जो वेदों को कहानी कहता है, उसकी कुल बातें कहानियॉं हैं। मूर्ख साधु वेदों की महिमा नहीं जान सकते। यदि नानक जी वेदों का मान करते, तो उनका अपना सम्प्रदाय न चलता, न वह गुरु बन सकते थे, क्योंकि संस्कृत नहीं पढी थी, फिर दूसरों को पढाकर शिष्य कैसे बनाते, आदि-आदि। दादू पन्थ को भी आप इसी प्रकार फटकारते हैं। शिक्षा, मार्जन तथा अपौरुषेय ज्ञान-राशि वेदों का आपका पक्ष है। मतमतान्तरों के स्वल्प जल में वह आत्मतर्पण नहीं करते। वहॉं उन्हें महत्ता नहीं दीख पड़ती। पुन: भाषा में अधूरी कविता करके ज्ञान का परिचय देने वाले अल्पाधार साधुओं से पण्डित-श्रेष्ठ स्वामी जी तृप्त भी कैसे हो सकते थे? इन अशिक्षित या अल्पशिक्षित साधुओं ने जिस प्रकार वेदों की निन्दा कर-कर मूढ जनों में वेदों के प्रतिकूल विश्वास पैदा कर दिया था, उसी प्रकार नव्य युग के तपस्वी महर्षि ने भी उन सबको धता बताया और विज्ञों को ज्ञानमय कोष वेदों की शिक्षा के लिए आमन्त्रित किया। स्वामी नारायण के मत के विषय पर आप कहते हैं-"यादृशी शीतलादेवी तादृशो वाहन: खर:" जैसी गुसाई जी की धनहरणादि में विचित्र लीला है वैसी ही स्वामी नारायण की भी है। माध्व मत के सम्बन्ध में आपका कथन है- "जैसे अन्य मतावलम्बी हैं वैसा ही माध्व भी है, क्योंकि ये भी चक्रांकित होते हैं। इनमें चक्रांकितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक बार चक्रांकित होते हैं और ये वर्ष-वर्ष फिर-फिर चक्रांकित होते जाते हैं। वे चक्रांकित कपाल में पीली रेखा और माध्व काली रेखा लगाते हैं। एक माध्व पंडित से किसी एक महात्मा का शास्त्रार्थ हुआ था । (महात्मा) तुमने यह काली रेखा और चान्दला (तिलक) क्यों लगाया? (शास्त्री) इसके लगाने से हम वैकुण्ठ को जाएंगे और श्रीकृष्ण का भी शरीर श्याम रंग का था, इसलिए हम काला तिलक करते हैं। (महात्मा) जो काली रेखा और चान्दला लगाने से बैकुण्ठ में जाते हो तो सब मुख काला कर लेओ तो कहॉं जाओगे?
स्वामीजी के व्यंग बड़े उपदेशपूर्ण हैं। आर्य-संस्कृति के लिए आपने नि:सहाय होकर भी दिग्विजय किया और उसकी समुचित प्रतिष्ठा की। स्वामी जी का सबसे बड़ा महत्व यह है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की ओर नहीं देखा, वेदों की प्रतिष्ठा की है। "ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज के नियम सर्वांश में अच्छे नहीं, क्योंकि वेदविद्याहीन लोगों की कल्पना सर्वथा सत्य क्योंकर हो सकती है? जो कुछ ब्रह्म समाज और प्रार्थना-समाजियों ने ईसाई मत में मिलने से थोड़े मनुष्यों को बचाया और कुछ-कुछ पाषाण आदि मूर्ति-पूजा से हटाया, अन्य जाल ग्रन्थों के फन्दे से भी कुछ बचाया इत्यादि अच्छी बातें हैं। परन्तु इन लोगों में स्वदेश-भक्ति बहुत न्यून है, ईसाइयों के आचरण बहुत से लिए हैं। खान-पान विवाहादि के नियम भी बदल गए हैं। अपने देश की प्रशंसा व पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही, उसके स्थान में पेट-भर निन्दा करते हैं। ब्रह्मदि महर्षियों के नाम भी नहीं लेेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान नहीं हुआ, आर्यावर्ती लोग सदा से मूर्ख चले आए हैं उनकी उन्नति कभी नहीं हुई। वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही, परन्तु निन्दा करने से भी पृथक् नहीं रहते। ब्रह्मसमाज के उद्देश्य की पुस्तक में साधुओं की संख्या में ईसा, मूसा, मुहम्मद, नानक और चैतन्य लिखे हैं, किसी ऋषि-महर्षि का नाम भी नहीं लिखा।"
आज शिक्षित सभी मनुष्य जानते हैं, भारत के अध:पतन का मुख्य कारण नारी जाति का पीछे रह जाना है। वह जीवन-संग्राम में पुरुष का साथ नहीं दे सकती। पहले से ऐसी निरवलम्ब कर दी जाती है कि उसमें कोई क्रियाशीलता नहीं रह जाती। पुरुष के न रहने पर सहारे के बिना तरह-तरह की तकलीफें झेलती हुई वह कभी-कभी दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेती है, आदि-आदि। पं. लक्ष्मण शास्त्री द्रविड़ जैसे पुराने और नए पण्डित अनुकूल तर्क-योजना करते हुए, प्रमाण देते हुए यह नहीं मानते कि भारत की स्त्रियॉं उसके पराधीन-काल में भी किसी तरह दूसरे देशों की स्त्रियों से उचित शिक्षा, आत्मोन्नति, गार्हस्थ्य सुख-विज्ञान, संस्कृति आदि में घटकर हैं। इसी तरह धर्म और जाति के सम्बन्ध में उनकी वाक्यावली, आज के अंग्रेजी शिक्षित युवकों को अधूरी जॅंचने पर भी, निरपेक्ष समीक्षकों के विचार में मान्य ठहरती है। फिर भी हमें यहॉं देखना है कि आजकल के नवयुवक-समुदाय से महर्षि दयानन्द, अपनी वैदिक प्राचीनता लिए हुए भी नवीन सहयोग कर सकते हैं या नहीं। इससे हमें मालूम होगा कि हमारे देश के ऋषि जो हजारों शताब्दियों पहले सत्य-साक्षात्कार कर चुके हैं, आज की नवीनता से भी नवीन हैं। क्योंकि सत्य वह है जो जितना ही पीछे है, उतना ही आगे भी, जो सबसे पहले दृष्टि के सामने है वही सबसे ज्यादा नवीन है।
ज्ञान की ही हद में सृष्टि की सारी बातें हैं। सृष्टि की अव्यक्त अवस्था भी ज्ञान है। स्वामी जी वेदाध्ययन में अधिकारी भेद नहीं रखते हैं। वह सभी जातियों की बालिकाओं-विद्यार्थिनियों को वेदाध्ययन का अधिकार देते हैं। यहॉं यह स्पष्ट है कि ज्ञानमय कोष चाहे वह जड़-विज्ञान से सम्बन्ध रखता हो, चाहे धर्म-विज्ञान से, नारियों के लिए युक्त है, वे सब प्रकार से आत्मोन्नति करने की अधिकारिणी हैं। इस विषय पर आप "सत्यार्थप्रकाश" में एक मन्त्र उद्धत करते हैं-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।।(यजुर्वेद 26.2)
"परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्य:) सब मनुष्यों के लिए (इमाम्) इस (कल्याणीम्) अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देने हारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। यहॉं कोई ऐसा प्रश्न करे कि जन-शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्मृत्यादि ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही को वेदों के पढने का अधिकार लिखा है, स्त्री और शूद्रादि वर्णों का नहीं। (उत्तर) ब्रह्मराजन्याभ्याम् इत्यादि देखो, परमेश्वर स्वयं कहता है कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय (आर्याय) वैश्य, (शूद्राय) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (आरणाय) और अति शूद्रादि के लिए भी वेदों का प्रकाश किया है । अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ-पढा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढा के अच्छी बातों को ग्रहण और बुरी बातों को त्याग करके दुखों से छुटकर आनन्द को प्राप्त हों। कहिए, अब तुम्हारी बात माने वा परमेश्वर की? परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है। इतने पर भी जो कोई इसको न मानेगा, वह नास्तिक कहावेगा, क्योंकि "नास्तिको वेद निन्दक:" वेदों का निन्दक और न मानने वाला नास्तिक कहलाता है।"
स्वामी जी ने वेद के उद्धरणों द्वारा सिद्ध किया है कि स्त्रियों की शिक्षा, अध्ययन आदि वेद-विहित है। उनके लिए ब्रह्मचर्य के पालन का भी विधान है। स्वामीजी की इस महत्ता को देखकर मालूम हो जाता है कि स्त्री समाज को उठाने वाले पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त पुरुषों से वह बहुत आगे बढे हुए हैं। वह संसार और मुक्ति दोनों प्रसंगों में पुरुषों के ही बराबर नारियों को अधिकार देते हैं। इस एक ही वाक्य से साबित होता है कि किसी भी दृष्टि से वह नारी-जाति को पुरुष-जाति से घटकर नहीं मानते।
आपका ही प्रवर्त्तन आर्यावर्त के अधिकांश भागों में महिलाओं के अध्यापन के सम्बन्ध में प्रचलित है। यहॉं स्त्री-शिक्षा-विस्तार का अधिकांश श्रेय आर्यसमाज को दिया जा सकता है। यहॉं की शिक्षा की एक विशेषता भी है। महिलाएं यहॉं जितने अंशों में देशी सभ्यता की ज्योति-स्वरूपा होकर निकलती हैं, उतने अंशों में दूसरी जगह नहीं। संस्कृति के भीतर से स्त्री के रूप में प्राचीन संस्कृति को ही स्वामी जी ने सामने खड़ा कर दिया है। - पं सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
वैदिक सूर्य
स्वामी दयानन्द एक ऐसे प्रकाश-स्तम्भ हैं, जिन्होंने असंख्य मनुष्यों को सत्य का मार्ग बतलाया है। उनके देश तथा देश की जनता पर किये गये उपकार सदैव अमर रहेंगे।महर्षि वर्तमानअन्धकार युग के लिए वैदिक सूर्य थे। मैं अपने को उनका अनुयायी कहलाने में गर्व अनुभव करता हूं। मैं उनके प्रशंसकों में हूँ ।- देवतास्वरूप भाई परमानन्द
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Similarly, in relation to Nanak ji, you have said that he did not have knowledge of Sanskrit, he has put those who read Vedas in the mouth of death and has taken his name and said that Nanak has become immortal, he is God. The stories that tell the Vedas are stories. The foolish monks cannot know the glory of the Vedas. If Nanak ji obeyed the Vedas, he would not have his own sect, nor could he become a Guru, because he did not study Sanskrit, then how to make disciples by teaching others, etc. You reprimand Dadu Panth in the same way.
आर्यों का मूल निवास आर्यों के मूल निवास के विषय में महर्षि दयानन्द का दृढ कथन है कि सृष्टि के आदि में मानव तिब्बत की धरती पर उत्पन्न हुआ था। तिब्बत में पैदा होने वालों में आर्य भी थे और दस्यु भी थे। स्वभाव के कारण उनके आर्य और दस्यु नाम हो गये थे। उनका आपस में बहुत विरोध बढ गया, तब आर्य लोग उस...
नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...