अनैतिकता और अन्धविश्वास के साथ समझौता नहीं- स्वामी दयानन्द इस युग के इस बात के एक मात्र प्रवर्तक थे, जिन्होंने कहा कि हम सब आपस में बैर भाव को त्याग कर, सत्य वैदिक आस्थाओं को स्वीकार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का प्रतिवाद करें। अनैतिकता और अन्ध विश्वासों को मत-मतान्तरों से निकाल दें, तो सभी मनुष्य एक सार्वभौम मंच पर मानव मात्र की सेवा कर सकते हैं।
Ved Katha Pravachan - 3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
बीसवीं शती में मनुष्य मात्र का एक गणित है, सबका एक रसायन शास्त्र है, एक भौतिकी और एक शिल्प है। इसी प्रकार वेद और वेदांग के अति प्राचीन युग में ज्ञान-विज्ञान मानव मात्र का एक था। हिन्दू गणित, अरब ज्योतिष, यूनानी तर्क शास्त्र और चीनी या मिश्री तत्वज्ञान ऐसे शब्द मध्ययुग में प्रचलित हुए। अब प्राचीन ऋषियों की परम्परा में विश्व के सभी विद्वान् और तत्वज्ञानी सत्य और ज्ञान को समझने में संकीर्णताओं को छोड़कर सत्य धर्म के सिद्धान्तों में एक हो जायें।
भारत में अन्धविश्वासों के पोषण और समर्थन का काम हिन्दू धर्म के ठेकेदार कर रहे हैं। अन्य देशों में ईसाई और मुसलमान भी इन्हीं अन्धविश्वासों का पोषण और समर्थन कर रहे हैं। आर्यसमाज, महर्षि दयानन्द और आर्षकालीन प्राचीन परम्पराएँ इन मान्यताओं का न तो पोषण करती थीं, न समर्थन। हम आपके और आप हमारे असत्यों, अन्धविश्वासों और अनैतिकताओं का विरोध न करें, इस प्रकार के समन्वय की बात करना पतनोन्मुख होना है। आर्य समाज का दृढ संकल्प है कि किसी भी स्थिति, देशकाल या अवस्था में किसी के अन्धविश्वास, असत्य और अनैतिकता के साथ वह साझा या समझौता नहीं करेगा।
प्रभु की कला पर, ज्ञान-विज्ञान और सत्य शिल्प पर सब एक हो सकते हैं किन्तु मस्जिद, गिरजें, कबरें, अवतार, पैगम्बर, मूर्ति और छल कपट पूर्ण चमत्कारों पर एकता नहीं हो सकती। अपने देश में हिन्दुओं को इस बात पर पूरी तरह विचार करने की आवश्यकता है।
आर्य समाज भारतवर्ष में अपने को किसी भी राष्ट्रीय अंग से पृथक नहीं करना चाहता। वह सबका हितैषी है, चाहे वह किसी प्रदेश का क्यों न हों। किन्तु अन्धविश्वासों और रूढियों को तोड़े बिना तथा परम्परा से चली आ रही रस्म-रिवाजों और आस्थाओं को शुद्ध और पवित्र किये बिना हम अपने राष्ट्र का संघटन नहीं कर सकते। अनैतिक और अन्ध विश्वासी तत्वों के साथ समझौता करने से राष्ट्रीय एकता सम्भव नहीं है।
पिछले 1000 वर्ष से भारत में भारतीयों के बीच मुसलमानों का कार्य आरम्भ हुआ। सन् 900 ई. से लेकर 1900 के बीच में दस करोड भारतीय मुसलमान बन गये। अर्थात् 100 वर्ष में एक करोड़ व्यक्ति मुसलमान बनते गये या प्रतिवर्ष 1 लाख भारतीय मुसलमान बन रहे थे। पिछले दो सौ वर्षो में भारत में ब्रिटिश राज्य का आधिपत्य होने पर इसी गति से भारतीय हिन्दू ईसाई भी बनने लगे। इस धर्म परिवर्तन का आभास न किसी हिन्दू राजा को हुआ, न किसी धार्मिक हिन्दू नेता को। भारतीय जनता ने अपने समाज के संगठन की समस्या पर इस दृष्टि से कभी सूक्ष्मता से विचार नहीं किया था। पण्डितों, विद्वानों, मन्दिर के पुजारियों के सामने यह समस्या राष्ट्रीय दृष्टि से प्रस्तुत ही नहीं हुई।
पिछले 1000 वर्ष के इतिहास में स्वामी दयानन्द अकेले ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने इस समस्या पर विचार किया। उन्होंने दो समाधान बताए। पहला भारतीय समाज सामाजिक कुरीतियों से आक्रान्त हो गया है और दूसरा समाज का फिर से परिशोध आवश्यक है। भारतीय सम्प्रदायों के कतिपय कलंक हैं, जिन्हें दूर न किया गया, तो यहॉं की जनता मुसलमान तो बनती ही रही है, आगे तेजी से ईसाई भी बनेगी। हमारे समाज के कतिपय भयंकर कलंक ये थे-
1. मूर्ति पूजा और अवतारवाद
2.जन्मना जातिवाद
3.अस्पृश्यता या छुआ-छूतवाद
4.परम स्वार्थी व भोगी महन्तों,पुजारियों,शंकराचार्यों की गदि्दयों का जनता पर आतंक।
5.जन्मपत्रियों,फलित ज्योतिष,अन्धविश्वासों,तीर्थों और पाखण्डों का भोली-भाली ही नहीं शिक्षित जनता पर भी कुप्रभाव।
राष्ट्र से इन कलंकों को दूर न किया जायेगा, तो विदेशी सम्प्रदायों का आतंक इस देश पर रहेगा ही।
दूसरा समाधान स्वामी दयानन्द ने यह प्रस्तुत किया कि जो भारतीय जनता मुसलमान या ईसाई हो गयी है उसे शुद्ध करके वैदिक आर्य बनाओ। न केवल इतना ही बल्कि मानवता की दृष्टि से अन्य देशों के ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैनी सबसे कहो कि असत्य और अज्ञान का परित्याग करके विद्या और सत्य को अपनाओ और विश्व बन्धुत्व की संस्थापना करो।
जन्मना जातिवाद का उन्मूलन-अनेक ऐसे हिन्दू नेता और धार्मिक आचार्य उत्पन्न हुए, जिन्होंने हिन्दू समाज से ऊँच-नीच का भेद हटाकर सबको सामाजिक दृष्टि से समान स्थिति प्रदान करने के पक्ष में आन्दोलन किया। इन धार्मिक नेताओं का कहना था कि भगवान् की दृष्टि में न कोई मनुष्य नीच है न ऊँच। अपने गुण, कर्म, सदाचार व भक्ति द्वारा ही मनुष्य उच्च पद प्राप्त कर सकता है। मध्य युग के इन धार्मिक नेताओं में रामानन्द, चैतन्य, नानक, कबीर आदि प्रमुख थे। पर मध्य युग के सन्त-महात्मा हिन्दू समाज से ऊँच-नीच और छूत-अछूत के रोग का निवारण करने में असमर्थ रहे। सामाजिक दृष्टि से न रैदास ऊँची स्थिति प्राप्त कर सके, न कबीर और न सेन। रैदास के चरित्र और भक्ति से उच्चवर्णो के लोग प्रभावित अवश्य हुये, पर उन्हें वैष्णव धर्म में ब्राह्मण आचार्यों के समकक्ष स्थिति प्राप्त नहीं हुई। रैदास के अनुयायी सजातीय लोग एक पृथक पन्थ के रूप में परिवर्तित हो गये और हिन्दू समाज में उनकी स्थिति नीची ही मानी जाती रही। यही बात कबीर आदि सन्तों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।
भारत के सामाजिक जीवन के ऊँच-नीच और छुआछूत के भेद को दूर करने के लिए अनेक बार प्रयत्न हुए। गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर ने भी इस सम्बन्ध में अनथक प्रयत्न किया था और आंशिक सफलता प्राप्त की थी। उनकी अल्प सफलता का कारण यह था कि इन धर्मों की मान्यताएं भारत की प्राचीन परम्पराओं के अनुकूल नहीं थी। ये न वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास करते थे, न सृष्टि के कर्त्ता-धर्त्ता और संहर्त्ता ईश्वर की सत्ता को ही स्वीकार करते थे। इसलिए ये भारतीय जनता को स्थायी व गहन रूप में अपने प्रभाव में नहीं रख सके और समाज में ऊँच-नीच आदि के भेदभाव को दूर कर समानता स्थापित कर सकने में भी असफल रहे। अत: ये दोनों धार्मिक आन्दोलन भारतीय जनता के बड़े भाग को प्रभावित कर सकने में असमर्थ रहे। मध्यकाल में सन्त महात्मा भक्ति मार्ग के प्रतिपादक थे और भगवान् की भक्ति में ऊँच-नीच के भेदभाव को भूल जाते थे। भक्तों की सीमित मण्डली में नीच समझे जाने वाले लोगों से उन्होंने प्रेम अवश्य किया, पर सामाजिक जीवन में शूद्रों की स्थिति परिवर्तित करने के लिये वे कुछ ठोस कार्य नहीं कर सके। उनके दिमाग में वर्ण परिवर्तन की बात नहीं आई। अर्थात् शूद्र अपने अच्छे गुण, कर्म, सदाचार तथा भक्ति आदि से भगवान् को प्राप्त कर सकता है परन्तु शूद्र से ब्राह्मण नहीं बन सकता। श्रेष्ठ गुण, कर्म तथा सदाचार का पालन करने वाले शूद्र जब तक समाज में "शूद्र" नाम से ही कहे जाते रहेंगे, तब तक उनकी सामाजिक निम्नतम स्थिति समाप्त नहीं हो सकेगी। इस तथ्य की ओर मध्य कालीन सन्त महात्माओं का ध्यान नहीं गया।
उन्नीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में भारत में नव जागरण का सूत्रपात हुआ। इस काल में समाज सुधार के लिये स्थापित संस्थाओं में ब्राह्म समाज, प्रार्थना-समाज तथा थियोसोफिकल सोसाइटी प्रमुख थीं। ब्रह्म समाज का प्रभाव बंगाल में ही सीमित रहा और प्रार्थना समाज का मुम्बई में।
इसके साथ ही इन संस्थाओं के प्रवर्त्तकों तथा संचालकों ने सामाजिक कुरीतियों व कुप्रथाओं के निवारण के लिये धर्म-ग्रन्थों का सहारा लेने पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। सामाजिक प्रथाओं का आधार प्राय: धर्म होता है। हिन्दुओं में यदि कुछ जातियों को ऊँचा या नीचा और कुछ को अछूत माना जाता था, तो उसका आधार भी धर्म को ही प्रतिपादित किया जाता था। पण्डित लोग स्मृतियों और धर्मशास्त्रों के आधार पर यह निरूपित करते थे कि ब्राह्मणों की उत्कृष्ट स्थिति और शूद्रों की हीनदशा शास्त्र सम्मत है। इन बुराइयों को समाज से तभी सफलता पूर्वक दूर किया जा सकता है, जब वेद शास्त्रों के प्रमाणों से यह सिद्ध किया जाये कि ये बातें न धर्मानुकूल हैं और न शास्त्र सम्मत। इस दिशा में स्वामी दयानन्द के अतिरिक्त अन्य किसी ने भी प्रयत्न नहीं किया। सर्वप्रथम भारतीय वर्ण व्यवस्था में शूद्रों की हीन स्थिति के बने रहने के जो प्रमुख आधार धर्मशास्त्र थे, उन्हें महर्षि दयानन्द ने चुनौती दी। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को गुण-कर्म तथा स्वभाव के आधार पर व्यवस्थित करने के वैदिक नियम को उपस्थित किया। मध्यकाल में विकसित धर्मशास्त्रों तथा धार्मिक मान्यताओं को कपोल कल्पित तथा वेदशास्त्र का विरोधी बताया। धार्मिक व्यवस्था तथा उस पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के लिये उन्होंने वेदों की प्रामाणिकता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया।
स्वामी दयानन्द की दृष्टि में आजकल प्रचलित मनुस्मृति का अधिकांश भाग प्रक्षिप्त है। वेद के विरुद्ध तथा परस्पर विरुद्ध होने के कारण भी मनुस्मृति के अनेक श्लोक अप्रामाणिक हैं। दण्ड व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्द का सिद्धान्त मध्यकालीन स्मृतियों तथा सूत्र के बिल्कुल विपरीत है। जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक पैसा दण्ड हो, उसी अपराध में राजा को सहस्र गुणा, मन्त्री को आठ सौ गुणा तथा छोटे से छोटे राजकीय भृत्य को आठ गुणे दण्ड से कम न होना चाहिये....ब्राह्मण को चौंसठ गुणा या सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाइस गुणा दण्ड होना चाहिए अर्थात् जिसका अधिक ज्ञान और प्रतिष्ठा हो उसको अपराध में उतना ही अधिक दण्ड होना चाहिए। (महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश, षष्ठ समुल्लास)
गुण कर्मानुसार चातुर्वर्ण्य की स्थापना के लिए जो क्रियात्मक पद्धति महर्षि ने प्रतिपादित की है, उसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-
1. राजनियम तथा जाति नियम द्वारा सब बालक-बालिकाओं को आठ वर्ष की आयु हो जाने पर गुरुकुलों (आवासीय शिक्षणालयों) में भेज दिया जाये। शिक्षा सबके लिए अनिवार्य हो और एक समान हो, चाहे द्विज की सन्तान हो और चाहे शूद्र या अतिशूद्र की।
2. गुरूकुलों में सबको समान आसन, समान वस्त्र और समान भोजन मिले, चाहे वे धनी माता-पिता की सन्तान हों, चाहे दरिद्र माता-पिता की।
3. शिक्षणकाल में विद्यार्थियों का सम्पर्क उनके माता-पिता से बिल्कुल न हो, जिससे उनमें माता-पिता की आर्थिक स्थिति या वर्ण के आधार पर उच्च या निम्न भावना न बने।
4. शिक्षण काल की समाप्ति पर आचार्यों द्वारा उनका वर्ण उनके गुण, कर्म, स्वभाव तथा योग्यता के आधार पर निर्धारित किया जाये।
5. गृहस्थ जीवन में पदार्पण के निमित्त स्नातक तथा स्नातिकाओं के विवाह उनके आचार्य द्वारा निर्धारित वर्ण के अनुसार गुण, कर्म तथा स्वाभावगत आधार पर किए जाएं।
इस प्रकार गुण कर्मानुसार चातुर्वर्ण्य की स्थापना का यह क्रियात्मक मार्ग स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित किया गया है। न इसकी ओर बुद्ध और महावीर का ध्यान गया, न मध्यकाल के सन्त-महात्माओं या धार्मिक तथा दार्शनिक आचार्यों का। इसकी ओर उन्नसवीं सदी के उन सुधारकों का ध्यान भी नहीं गया, जो पश्चिम से प्रेरणा लेकर भारत की सामाजिक दशा सुधारना चाहते थे। वस्तुत: भारत के इतिहास में अकेले महर्षि दयानन्द सरस्वती ही ऐसे चिन्तक हुए हैं, जिन्होंने देश की भयंकर सामाजिक व्यवस्था की जातिगत बुराइयों की बीमारी के मूल कारणों का पता लगाया और उसके निवारण के लिए क्रियात्मक और सशक्त उपाय प्रतिपादित किए। -डॉ. ज्वलन्त कुमार शास्त्री (वैदिक सार्वदेशिक, दिल्ली, 2 से 8 मार्च 2006)
क्रान्तिवादी महापुरुष
स्वामी दयानन्द महान् सुधारक और प्रखर क्रान्तिकारी महापुरुष तो थे ही, साथ ही उनके हृदय में सामाजिक अन्यायों को उखाड़ फेंकने की प्रचण्ड अग्नि भी विद्यमान थी। उनकी शिक्षाओं का हम सबके लिए भारी महत्त्व है। क्योंकि आज भी हमारे समाज में बहुत-सी विभेदकारी बातें विद्यमान हैं। उनका सामना महर्षि दयानन्द के बताये हुए मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है। आध्यात्मिक व्यवस्था, सामाजिक कुरीतियॉं तथा राजनीतिक दासता देश को जकड़े हुए थी, तब महर्षि दयानन्द ने राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक उद्धार का बीड़ा उठाया। सत्य, सामाजिक एकता और एक ईश्वर की आराधना का सन्देश उन्होंने दिया। उन्होंने शिक्षा एवं ईश्वर पूजा की स्वतन्त्रता सभी के लिए उपलब्ध करने पर बल दिया। भारत के संविधान में सामाजिक क्षेत्र के लिए अनेक व्यवस्थाएं महर्षि दयानन्द के उपदेशों से प्रेरणा लेकर ही की गई हैं। - डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, भूतपूर्व राष्ट्रपति
Contact for more info. -
राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा इन्दौर
नरेन्द्र तिवारी मार्ग, बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास, दशहरा मैदान के सामने
अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
दूरभाष : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
www.allindiaaryasamaj.com
--------------------------------------
National Administrative Office
Akhil Bharat Arya Samaj Trust
Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
Narendra Tiwari Marg, Near Bank of India
Opp. Dussehra Maidan, Annapurna
Indore (M.P.) 452009
Tel. : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
www.allindiaaryasamaj.com
Contractors of Hinduism are doing the work of nurturing and supporting superstitions in India. Christians and Muslims in other countries are also nurturing and supporting these superstitions. The ancient traditions of Arya Samaj, Maharishi Dayanand and Aarshaal neither nourished nor supported these beliefs. We should not oppose you and you, our untruths, superstitions and immoralities, to talk about this type of co-ordination is to be downward-oriented.
नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...