जिस समय स्वामी दयानन्द ने कार्य आरम्भ किया और अपने विचारों और उद्देश्यों के प्रचार-प्रसार के लिए "आर्यसमाज" नामक संगठन की स्थापना की, भारत और भारतीय समाज की दृष्टि से वह घोर अन्धकार एवं अवसाद का युग था। सामाजिक ढांचा सर्वथा विश़ृङ्खलित और छिन्न-भिन्न सा हो चला था। जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूआछुत ने उसे बिल्कुल खोखला और निष्प्राण बना दिया था। भयानक अन्धविश्वासों एवं रूढियों के जबड़े में फंसा वह छटपटा रहा था। प्राय: सारा समाज अशिक्षा एवं अज्ञान से ग्रस्त था। धर्मशास्त्रों की दुहाई देकर न केवल अछूतों को ही, अपितु स्त्रियों को भी पढाना पापकोटि में गिना जाता था। जन्म के आधार पर थोड़े से लोगों को छोड़कर शेष सारा समाज अनपढ ही रह गया था।
Ved Katha Pravachan - 2 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
एक ओर इन सब आन्तरिक व्याधियों से समाज पीड़ित था, तो दूसरी ओर विदेशी शासन बड़ी निर्ममता से उसे कुचल रहा था। ये विदेशी शासक केवल राजनैतिक और आर्थिक शोषण से ही सन्तुष्ट न रहकर मानसिक एवं वैचारिक दासता का दुर्भेद्य जाल भी फैला रहे थे। 1857 की क्रान्ति की ज्वालाओं के बुझने के बाद के सन्नाटे में उनको मनमानी करने के लिए सारी परिस्थितियॉं अनुकूल मिल चुकी थीं और उनको दुरभिसन्धियों को खुलकर खेलने का अवसर मिल गया था।
राष्ट्र की इस दयनीय स्थिति की अनुभूति दयानन्द के निम्न शब्दों में फूट पड़ी- "अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहानी, किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराए का पक्षपात शून्य, प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना उसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।" (सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास)
"ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अभी तक वह अपनी पूर्व दशा में नहीं आ पाया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह है। अब इनके सन्तानों का अभाग्योदय होने से राजभ्रष्ट होकर विदेशियों के पादाकान्त हो रहे हैं।" (सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास)
कितना मर्मस्पर्शी यह निरूपण और विवेचन है। दयानन्द जैसा निर्भीक विद्वान् संन्यासी ही ब्रिटिश शासन की प्रचण्डता एवं आतंक के उस युग में ऐसे उद्गार प्रकट करने का साहस कर सकता था। यही शब्द उनके राष्ट्रीय जनजागरण की भूमिका के प्रस्तावक या संकेतक हैं।
स्वामी दयानन्द सही अर्थों में एक युगनिर्माता महापुरुष थे। धर्म, समाज, देशभक्ति, शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में उन्होंने क्रान्ति का मन्त्र फूंका। राष्ट्र के स्वाभिमान को जगाया। जहॉं कहीं भी उन्हें पाखण्ड, मिथ्याचार शोषण तथा कालुष्य दिखाई पड़ा, उन्होंने वहीं उस पर अंगुली रख दी और उसका स्वस्थ उपचार प्रस्तुत किया।
स्वदेश प्रेम उनके मन में अदम्य था। सत्यार्थप्रकाश में अवसर पाकर यह इस प्रकार फूट पड़ा-"यह आर्यावर्त देश ऐसा है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिए इस भूमि का नाम स्वर्णभूमि है। क्योंकि यही सुवर्णादिरत्नों को उत्पन्न करती है..... जितने भूगोल में देश हैं वे सब इसी देश की प्रशंसा करते हैं और आशा करते हैं कि पारसमणि पत्थर सुना जाता है यह बात तो झूठी है परन्तु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिसको लौहरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।"
इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि स्वामी दयानन्द के मन में स्वदेश प्रेम किस प्रकार तरंगित हो रहा था और विदेशी शासन के विरुद्ध विद्रोह की कितनी उग्र ज्वाला धधक रही थी। यह भी उल्लेखनीय है कि जिस समय अंग्रेजी शासन का इतना आतंक छाया हुआ था कि कोई चू तक करने का साहस न करता था, प्रत्युत कुछ तथाकथित बुद्धिवादी लोग शान्ति और व्यवस्था की स्थापना के नाम पर उनकी प्रशंसा में रत थे तो अकेला जननायक दयानन्द खुल्लम-खुल्ला विद्रोह का शंख बजा रहा था।
इसी का परिणाम था कि प्राय: प्रत्येक आर्यसमाजी स्वाधीनता का सन्देशवाहक बन गया था और आर्यसमाज की प्रत्येक संस्था स्वाधीनता अन्दोलन का केन्द्र बन गई थी। कांग्रेस के मञ्च पर जहॉं एक ओर स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, चौधरी रामभज दत्त, डॉ. सत्यपाल, भाई परमानन्द, लाला देशबन्धु गुप्त आदि आर्यसमाजी नेता दिखाई देते थे, वहॉं क्रान्तिकारियों में बिस्मिल आदि शहीदों का प्रेरणास्रोत भी आर्यसमाज ही था। लाला लाजपतराय डी.ए.वी. कॉलेज में पढाते थे, भाई परमानन्द जी भी इसी कॉलेज में इतिहास के शिक्षक थे। पहले उन्हें फांसी की सजा हुई और फिर काला पानी भेज दिया गया। श्याम जी कृष्ण वर्मा तो साक्षात् स्वामी जी के शिष्य ही थे। उन्हीं की प्रेरणा से वे विदेश में अध्ययन करने के लिये गये थे। रामप्रसाद बिस्मिल ने तो अपनी आत्मकथा में लिखा है कि स्वाधीनता की वेदी पर बलिदान होने की प्रेरणा उन्होंने आर्यसमाज से ही ग्रहण की। सरदार भगतसिंह कलकत्ता की कार्नवालिस स्ट्रीट में आर्यसमाज में महीनों तक अपना अज्ञानवास बिताते रहे। उनके दादा सरदार अर्जुनसिंह और पिता सरदार किशनसिंह दोनों ही बड़े निष्ठावान् आर्यसमाजी थे। सरदार भगतसिंह का वैदिक रीति से यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हुआ और उनकी शिक्षा डी.ए.वी. कालेज लाहौर में हुई।
जलियॉंवाला बाग काण्ड तथा रोलट एक्ट के दमनचक्र से आतंकित पंजाब में कांग्रेस का अधिवेशन करने का प्रश्न आया तो स्वामी श्रद्धानन्द जी ने यह उत्तरदायित्व सम्भाला। उन्हीं दिनों दिल्ली में मार्शल-लॉ की अवहेलना करने के लिए एक विशाल जुलूस का नेतृत्त्व करते हुए घण्टाघर चांदनी चौक पर स्वामी जी ने गोरे-सैनिकों की संगीनों के सामने छाती खोलकर उन्हें गोली मारने के लिए ललकारा था।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यसमाज के योगदान का कुछ अनुमान हण्टर कमेटी की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। यह कमेटी ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने 1919 में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध पंजाब में हुए विद्रोह की जांच के लिए नियुक्त की थी और इसके सब सदस्य अंग्रेज थे। उस रिपोर्ट में लिखा था कि जहॉं-जहॉं आर्यसमाज है, वहॉं-वहॉं सरकार के विरुद्ध विद्रोह का केन्द्र बन गया है और आर्यसमाज अंग्रेज सरकार के विरुद्ध लोगों को भड़काने में बहुत-सक्रिय भाग ले रहा है।
आर्यसमाज ने आरम्भ से ही जाति-पाति तथा छुआछूत के विरूद्ध सक्रिय अभियान चलाया। इस देश में जाति पाति तोड़कर विवाह करने का काम आर्यसमाज ने ही चालू किया। अछूत कहे जानेवाले वर्गों को गले लगाना, उनके साथ सार्वजनिक रूप से सहभोज करना, उनको अपनी संस्थाओं में शिक्षा आदि के समान अवसर देना आदि आर्यसमाज के कार्यक्रम के मुख्य अंग रहे हैं। आर्यसमाज में ऐसे सैकड़ों प्रचारक रहे और आज भी हैं, जो अछूत जातियों से सम्बन्ध रखते हैं। परन्तु उन्हें सुशिक्षित होने के कारण उसी प्रकार पण्डित कहकर पुकारा जाता है या सत्कार किया जाता है जैसा कि उच्च जाति के लोगों का किया जाता है। वे आर्यसमाजियों में ही इस प्रकार आत्मसात् या लीन हो गए कि किसी को उनके जन्म, जाति या कुल का पता ही नहीं चल पाता था। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने दलितोद्धार सभा नामक संस्था की स्थापना करके उसके द्वारा इस दिशा में व्यापक कार्य किया। प्रारम्भ में प्राय: सर्वत्र आर्यसमाजियों को इस कार्य में सामाजिक बहिष्कार एवं प्रकोप तक का सामना करना पड़ा, परन्तु वे अपने मार्ग पर अविचलित रहे। ग्रामों में सब जगह आर्यसमाजियों ने अपने कुएं अछूतों के लिए खोल दिए थे। कई आर्यसमाजियों को तो इस आन्दोलन में प्राण तक देने पड़े, जिनमें महाशय रामचन्द्र जम्मू का नाम उल्लेखनीय है।
देश की अधिकांश जनता अशिक्षित थी, पुराने शिक्षणालय जो कुछ थे, वे भी बन्द हो गए थे। अंग्रेजों द्वारा चलाई गई शिक्षा पद्धति का उद्देश्य उसके उद्भावक लार्ड मैकाले के शब्दों में ही यह था कि ऐसे शिक्षित युवक तैयार किये जायें जो शक्ल सूरत में तो भारतीय हों, परन्तु मस्तिष्क, संस्कार, रहन-सहन आदि में पूरे विदेशी हों। सीधे शब्दों में देश के स्वाभिमान तथा संस्कृति को क्षीण करने की यह एक सुविचारित योजना थी। स्वदेश और स्वसंस्कृति के उपासक स्वामी दयानन्द तथा उनके आर्यसमाज ने विदेशी शासकों की इस दुरभिसन्धि को विफल करने के लिए ठोस पग उठाए। सन् 1886 में सबसे पहले लाहौर में डी.ए.वी. कालेज स्थापित किया गया। उद्देश्य स्पष्ट रूप से यह था कि ऐसे युवक तैयार हों जो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ प्राचीन भारतीय साहित्य तथा संस्कृति का थी यथेष्ट ज्ञान रखें। आगे चलकर गुरुकुलों की स्थापना का विचार बना। सन् 1900 में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई। गुरुकुल शिक्षा पद्धति की यह विशेषता है कि उसमें ब्रह्मचर्याश्रम के नियमों के अनुसार सादा तथा साधनामय जीवन व्यतीत करना होता है। गरीब-अमीर तथा जाति-पांति के भेद को भुलाकर समाज की सारी सन्तति को समान भोजन-वस्त्र, अध्ययन तथा रहन-सहन की सुविधायें मिलती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में समाजवादी ढांचे के वे दर्शन आज भी गुरुकुलों में किए जा सकते हैं। गुरुकुल कांगड़ी के छात्रों तथा अध्यापकों ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में सदा बढ-चढ कर भाग लिया। महात्मा गान्धी जी कई बार गुरुकुल आए और कई-कई दिन ठहरे। महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय जी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, दीनबन्धु एण्ड्रयूज, पं. मोतीलाल नेहरु आदि राष्ट्रीय नेता समय-समय पर गुरुकुल आते रहे। गुरुकुल कांगड़ी के पश्चात् सैंकड़ों गुरुकुल देश के कोने-कोने में खुल गए जिनसे निकले हजारों विद्वानों ने विभिन्न क्षेत्रों में समाज की महत्त्वपूर्ण सेवा की। इनमें अछूत कहे जाने वाली जातियों के युवकों की भी भारी संख्या थी। इसी प्रकार महात्मा हंसराज ने भी समाज को भारी संख्या में ऐसे युवक प्रदान किए, जिन्होंने कानून, न्याय, शिक्षा तथा समाज-सेवा आदि के क्षेत्र में विशिष्ट ख्याति प्राप्त की।
स्वामी दयानन्द गुजराती थे और संस्कृतज्ञ होने के कारण संस्कृत में ही भाषण-लेखन आदि करते थे। कलकत्ता में ब्रह्मसमाज के नेता डा. केशवचन्द्र सेन के परामर्श पर उन्होंने हिन्दी को अपनाया। आधुनिक खड़ी बोली हिन्दी में सम्भवत: पहले सार्वजनिक लेखक वही थे और उनकी कृति सत्यार्थप्रकाश ही हिन्दी की सर्वप्रथम ऐसी पुस्तक रही, जो अधिकाधिक जनता में पहुँची। - रघुवीरसिंह शास्त्री (आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा, शताब्दी स्मारिका, मई 1987)
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Swami Shraddhanand ji took up this responsibility when there was a question of holding a Congress session in Punjab, which was terrorized by the Jallianwala Bagh scandal and the repression cycle of the Rollat Act. At the same time, Swami ji, at the Ghantaghar Chandni Chowk, led a huge procession to defy martial law in Delhi and opened the chest of white soldiers in front of the cronies to shoot them.
नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...