अन्धेरा था, निराशा थी और रूढियों का बोलबाला था। अज्ञान से ग्रस्त समस्त मानव समाज जीवन और आनन्द का सत्य मार्ग छोड़कर भटक रहा था। भूमण्डल में सर्वत्र अशान्ति के बीज दृष्टिगोचर हो रहे थे । प्रतीत हो रहा था कि यह धरती स्वार्थ की अग्नि में मानवता को भस्मसात् कर देगी। बस ऐसे समय में 19वीं सदी का महान् कर्मयोगी गुजरात प्रान्त के मोरवी राज्य स्थित टंकारा ग्राम में जड़शंकर से मूलशंकर को खोजने निकला। इस खोज में सत्य के प्रति अटूट श्रद्धा, ईश्वर भक्ति, परहित कामना दयानन्द के जीवन की प्रेरक शक्ति बने रहे। सत्य की प्रतिष्ठा, धर्म और मानव के गौरव को स्थापित करने की उदात्त प्रेरणा, परहित सिद्ध करते हुए ईश्वर को साक्षात्कार करने की मान्यता, इन सब पर ही उनका जीवन अर्पित था।
Ved Katha 1 part 4 (Different Types Names of one God) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
स्वामी दयानन्द अपने गुरु विरजानन्द से ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् अपने गुरु के आदेशानुसार अज्ञान के अन्धकार को मिटाने में लग गये। सन् 1875 ई. में उन्होंने विश्व के त्रस्त मानव कल्याणार्थ आर्य समाज की स्थापना की और अनेकों क्रान्तिकारी ग्रन्थों को लिखकर सोये हुए देश को जगाया। उन्होंने वेदों का भाष्य किया। अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु आर्योद्देश्यरत्नमाला, गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थों की रचना की।
निर्भयता और सत्य
1.1866 ई. में जब स्वामी जी लाहौर में ठहरे हुए थे और उन्होंने अपने प्रबल आन्दोलन को चला रखा था, तब काश्मीरपति महाराजा रणवीरसिंह ने पं. मनफूल द्वारा स्वामी जी से अनुरोध किया कि आप मूर्तिपूजा के विरोध में कुछ न कहें। यदि ऐसा करेंगे तो मैं अपना सारा धनागार आपको समर्पित कर दूंगा। परन्तु दयानन्द ने इसका क्या उत्तर दिया? आपने निर्भयता के साथ सत्य के प्रचार से न डिगते हुए पं. मनफूल से कहा- "मैं वेद प्रतिपादित ब्रह्म को सन्तुष्ट करूंगा, न कि काश्मीरपति को। महाराजा का प्रलोभन मुझे अपने सत्य के मार्ग से नहीं हटा सकता।" महाराजा ने कहा कि आप फिर विचार करें। इतनी बड़ी धनराशि फिर कभी नहीं मिलेगी। महर्षि का र्निर्भीक उत्तर था कि इतनी बड़ी धनराशि ठुकरानेवाला भी आपको कोई नहीं मिलेगा।
2. लाला जगन्नाथ ने एक दिन स्वामी जी से कहा कि आप पर आक्रमण की सम्भावना है। इसलिए अच्छा होगा कि आप विश्राम के लिए नीचे के भाग में रहने लगिए, वह सुरक्षित है । स्वामी जी ने कहा कि "यहॉं तो आप मेरी रक्षा कर लेंगे, परन्तु अन्यत्र कौन करेगा? आज तक अकेले ही भ्रमण किया है, आगे भी करूंगा।" कई बार मेरे प्राणहरण की चेष्टा की गई, परन्तु सर्वरक्षक परमात्मा ने मेरी रक्षा की और भविष्य में भी वही करेगा, सत्य के प्रचार में बाधायें आती ही हैं। आप चिन्ता न करें।"
3. 1869 ई. में जबकि काशी में महाशास्त्रार्थ का आन्दोलन हो रहा था, काशी का एक प्रसिद्ध पण्डित एक दिन रात्रि के समय स्वामी दयानन्द के पास आया और उनसे प्रार्थना की कि यदि आप मूर्तिपूजा का खण्डन न करें तो काशी पण्डितमण्डली एकत्र होकर आपके गले में जयमाला पहनायेगी और आपको हिन्दुओं का अन्यतम अवतार मानेगी। उत्तर में महर्षि ने कहा, "मैं यह कुछ नहीं चाहता। मैं तो वेदप्रतिपादित सत्य के प्रचार के लिए आया हूँ।"
4. दिल्ली के निकटवर्ती किसी स्थान के अन्य सेठ ने श्री स्वामी जी के पास आकर विनयपूर्वक यह प्रार्थना की कि महाराज मैं आपको एक लाख रुपया भेंट करता हूँ। आप मूर्तिपूजा का खण्डन न करें। सेठ जी के अनुरोध को सुनकर स्वामी जी के होठों पर मुस्कान सी आ गई और आपने कहा कि प्रलोभन मुझे निर्भयता, साहस, पराक्रम और सत्यपथ से विचलित नहीं कर सकता। आप यहॉं से चले जाइये।
स्वामी जी ने देश के अन्दर व्यापक बुराइयों पर गहरी चोट की। बालविवाह, मूर्तिपूजा (जड़पूजा), विदेश गमन पर लगे प्रतिबन्ध, गोहत्या, विदेशी रहन-सहन, जातिप्रथा, छुआछूत, अवतारवाद, नशाखोरी आदि सारी बुराइयों का विरोध किया और उन्हें जड़मूल से उखाड़ने में लग गये। वेद का उद्धार किया, नारियों को सम्मान दिया तथा गिरी हुई और सोई हुई जाति को फिर से जगाया।
स्वामी जी आर्य समाज के द्वारा क्रान्ति चाहते थे, पर राज्यों की, अधिकारों की नहीं, नामों की भी नहीं, अपितु विचारों की। उनकी इच्छा थी कि इस क्रान्ति यज्ञ में समस्त वाद-मत-जाति-पन्थ की आहुति देकर एकता के मार्ग को प्रशस्त एवं विस्तृत किया जाये और संसार में रहनेवाले सभी मनुष्य एक ईश्वर के पुत्र होने के नाते भाई-भाई की तरह इस धरती पर रहें। पर दुर्भाग्य इस भारत भूमि का, आर्यावर्त का कि स्वामी जी अधिक दिन तक नहीं रह सके। षड्यन्त्रकारियों के षड्यन्त्रों के शिकार हुए।
सन् 1883 ई. में जोधपुर में जगन्नाथ पाचक द्वारा दूध में विष मिलाकर देने के कारण स्वामी जी कुछ दिनों तक ही जीवित रहे और दीपावली के दिन विश्व को मानवता की अमरता का पाठ पढानेवाले स्वयं अमर हो गए। - वीरेन्द्रसिंह दहिया (आर्यप्रतिनिधि सभा हरयाणा शताब्दी स्मारिका, मई 1987)
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Swami Dayanand, after receiving knowledge from his Guru Virjanand, began to remove the darkness of ignorance as ordered by his Guru. In 1875 AD, he founded the Arya Samaj for the welfare of the world's stricken human beings, and wrote many revolutionary texts and woke up the sleeping country. He commented on the Vedas. Amar Granth Satyarthprakash, Rigvedadibhashyabhumika, Sanskarvidhi, Aryabhivinaya, Behavnabhanu Aryodeshyaratnamala, Gokrunanidhi composed books.
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नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...