आज समूचा राष्ट्र भावात्मक अनेकता का ग्रास बना हुआ है। इसका मुख्य कारण ही सम्प्रदाय एवं मजहबवाद है। आज यह शोर बहुत जोरों पर है कि राजनीति में धर्म का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। यदि वास्तव में ऐसा हुआ तो थोड़ी बहुत नैतिकता एवं आदर्श भी समाप्त हो जायेगा। हमारे शास्त्र, धर्मग्रन्थ एवं महापुरुष तो धर्म के आधार पर ही राजनीति चलाने की बात कह गए हैं। धर्म से हीन राजनीति हमें किस गड्ढे में गिरायेगी यह कल्पना से भी परे की बात है। यहॉं हमारे नेता लोग धर्म व सम्प्रदाय एवं मजहब में ठीक ढंग से अन्तर नहीं कर पा रहे हैं। धर्म तो किसी भी व्यक्ति, समूह, समाज और राष्ट्र को गतिशील तथा उन्नतिशील बनाने का एक माध्यम है। धर्म से हीन व्यक्ति को तो पशु की संज्ञा दी गई है, मगर वह धर्म बहुत विशाल है- संकुचित नहीं।
Ved Katha Pravachan - 20 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
आज धर्म के नाम पर जो मार-काट, वैर-वैमनस्य एवं चारों ओर विघटन का जो सिलसिला चल पड़ा है उसके मूल में धर्म नहीं बल्कि मजहब और सम्प्रदाय हैं। सम्प्रदाय या मजहब किसी एक महापुरुष एवं जाति या समुदायविशेष की मान्यतायें होता है। इसी से भाषावाद, क्षेत्रवाद और स्वार्थवाद पनपता है। बाहर के चिन्हों एवं मान्यताओं को भीतर की पवित्रता से अधिक महत्त्व दिया जाता है। साम्प्रदायिक लोग केवल अपनों का भला चाहते हैं। इसीलिए मानवतावाद, राष्ट्रवाद, विश्वबन्धुत्व जैसी भावनाएं विलुप्त हो जाती हैं। वहॉं हर बात को, प्रत्येक कार्य को केवल एक संकुचित दृष्टिकोण से सोचा जाता है। धर्म इससे बिल्कुल ही विपरीत है। वह तो व्यक्ति की लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति का आधार है - यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म: । (कणाद मुनि)वह तो समूची मानवता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है-
सर्वेषां सुहृद् नित्यं सर्वेषां यो हिते रत:।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जायते।।(महाभारत शान्तिपर्व)
अर्थात् जो मनुष्य सब प्राणियों का मित्र है और जो मन-वचन व कर्म से सबकी भलाई में लगा रहता है, वही धार्मिक है। तुलसीदास जी ने भी इस भाव को यूं प्रकट किया है- परहित सरस धर्म नहीं, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। ऐसा धर्म या धार्मिक व्यक्ति यदि राजनीति में अपना हस्तक्षेप करेगा तो भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। मगर जब इस सार्वभौतिक धर्म को स्वार्थ एवं संकुचितता की दीवारों में कैद करके मजहब और सम्प्रदाय का रूप दे दिया जाता है तो यही तथाकथित धर्म हेय एवं त्याज्य हो जाता है। आज आवश्यकता यह नहीं है कि राजनीति धर्म से परहेज करे, बल्कि जरूरत इस बात की है कि आज पुन: धर्म के वास्तविक स्वरूप को पहचाना जाए। सम्प्रदायवाद, मजहबवाद, भाषा व क्षेत्रवाद तभी समाप्त हो जाता है जब किसी भी मत, सम्प्रदाय एवं मजहब को मनमानी करने की छूट न दी जाए। सरकार ज्यों-ज्यों ऐसे तत्वों को प्रसन्न करने के लिए अवसर देती है त्यों-त्यों ये और भी अधिक शक्तिशाली बनकर राष्ट्र के लिए समस्या बनते जा रहे हैं। एक दिन वह भी आयेगा जब यही मजहबी एवं साम्प्रदायिक लोग धार्मिक स्वतन्त्रता की आड़ लेकर प्यारे राष्ट्र को खण्डित करने के आयोजन करेंगे। समय रहते ही सरकार व जीओ तथा जीने दो के सिद्धान्त पर चलनेवाले धार्मिक लोगों को मिलकर प्रयास करने चाहिएं कि ये स्वार्थी लोग अपने कुटिल एवं कुत्सित मन्तव्यों में सफल न हो सकें।
आर्यसमाज आज भी एकमात्र ऐसी संस्था है जो हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई या अन्य जात-पात, क्षेत्रवाद आदि के दायरों से ऊपर उठकर कार्य कर रही है। इस संस्था की बातें कई बार मजहबी लोगों को अपने स्वार्थों पर चोट लगने के कारण बुरी भी लगती हैं। मगर यह एक ध्रुव सत्य है कि वास्तविक भावात्मक एकता उन नियमों पर चलने पर ही हो सकती है जिनका प्रशस्तीकरण महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने किया था। वे एक ऐसे महामानव थे जिन्होंने धर्म की सार्वभौमिकता एवं वास्तविकता को हमारे समक्ष पुन: रखा। उन्होंने जिस विलुप्तप्राय वैदिक धर्म का पुन: प्रतिष्ठापन किया, वह मानवमात्र के लिए है तथा मानव को मानव बनने की प्रेरणा देता है, मजहबी नहीं। वे मात्र मानव का मानवीकरण करना चाहते थे और कुछ नहीं। उन्होंने किसी भी व्यक्ति को मानवतावादी शाश्वत एवं स्वच्छ प्रवाह से अलग छिटकाकर किसी मजहब, जाति या सम्प्रदाय विशेष के गर्त में नहीं धकेला, बल्कि जो ऐसे कुछ लोग अज्ञानतावश अलग-अलग छिटककर मानवता के लिए कलंक बन रहे थे, उन्हें भी उन्होंने उबारने का भरसक प्रयत्न किया। उनका बस एक ही सपना था कि सभी स्वार्थ और झूठी मान-प्रतिष्ठा के कारण अलग-थलग पड़े लोग पुन: एक सूत्र में बन्ध जाएं। सभी साम्प्रदायिक लोग यदि आज भी मानवता के पोषक तत्त्वों को अपना लें तथा बाकी स्वार्थ और मजहब एवं जातिवाद को अलग छोड़ दें तो उसी सार्वभौमिक एवं समान आचारसंहिता की तस्वीर उभरेगी जिसकी कल्पना महर्षि दयानन्द ने की थी। आज यदि हमारी रक्षा हो सकती है तो केवल और केवलमात्र उसी मानवतावादी विचारधारा की शरण में जाकर हो सकती है। महर्षि की वेदसम्मत मान्यता कितनी असाम्प्रदायिक, सार्वभौमिक एवं सर्वहितकारी थी, इसका दिग्दर्शन आर्यसमाज के स्वर्णिम दस नियमों में सहर्ष किया जा सकता है। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि किसी भी संस्था के नियम इतने उच्चकोटि के नहीं हो सकते हैं। किसी भी व्यक्ति, राष्ट्र, समाज यहॉं तक कि विश्वबन्धुत्त्व और विश्वशान्ति भी इन नियमों को अपनाकर स्थापित की जा सकती है। आर्य समाज का धर्म वेद सम्मत है तथा व्यक्ति के चारित्रिक उत्थान को विशेष महत्त्व देता है। बाहर से व्यक्ति कैसा है इस बात की अपेक्षा भीतरी सौन्दर्य एवं मानवीय गुणों को महत्त्व दिया गया है और फिर आदमी जो आदमी बन जाए, झगड़ा सारे जहॉं का मिट जाए। मनुष्य, समाज राष्ट्र एवं समूचे विश्व की ईकाई है। इसलिए उसका चतुर्दिक् रूप से परिष्कृत होना अतिआवश्यक है। यही आर्यत्व है जिसे महर्षि दयानन्द समूचे विश्व पर लागू करना चाहते थे। उन्होंने मजहबी पैदा नहीं किये, बल्कि मानव बनने की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति को मोड़ा। धर्म की एक परिभाषा है-
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
अर्थात् जो व्यक्ति धैर्य, क्षमा, मन की वृत्तियों को वश में रखना, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों को कुमार्ग पर न जाने देना, सद्बुद्धि प्राप्त करना, ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि, मन-वचन-कर्म से सत्य आचरण, क्रोध न करना जैसी दिव्य भावनाओं से ओतप्रोत है वह धार्मिक है। कितना दिव्यतापूर्ण एवं शाश्वत सन्देश इन पंक्तियों में है! आज के तथाकथित धार्मिक वास्तव में मजहबी लोग इन मानवीय गुणों के स्थान पर पत्थर, ईंटों, ग्रन्थों, कबरों, पीर-पैगम्बरों, भाषाओं, क्षेत्रों और जाति तथा सम्प्रदायों में बटे हुए हैं। धर्म तो चीज ही कुछ और है। धर्म के उज्ज्वल पक्ष को पहचानने तथा उसे मन-वचन-कर्म में ढालने की आवश्यकता है, तब धर्म का राजनीति में हस्तक्षेप सोने में सुहागे जैसा काम देगा। बिना धर्म के राजनीति पंगु है। मगर मजहब के हाथों बिककर वह राक्षसी है। आज अपने-अपने स्वार्थों के कारण साम्प्रदायिक लोगों ने जो विध्वंसक स्थिति पैदा कर दी है, उसका निराकरण महर्षि दयानन्द सरस्वती जी द्वारा निर्देशित मानवीय विचारधारा के आधार पर ही हो सकता है। मगर हो इसके विपरीत रहा है। क्योंकि सरकार भी सम्प्रदाय एवं मजहब तथा क्षेत्रवाद को तो बढावा दे रही है, मगर मानवीय गुणों पर आधारित महर्षि की विचारधारा को टी.वी. एवं रेडियो के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित नहीं किया जा रहा है। मजहब और सम्प्रदायवाद के रोग ने आज समूची मानवता को रोगी बना दिया है और इनके हस्तक्षेप से राजनीति भी रोगी बन गई है। उपचार एवं परहेज गलत हो रहे हैं, इसलिए रोग बढता ही जा रहा है। दृढता के साथ सही उपचार करने की आवश्यकता है। टाल-मटोल तथा लीपा-पोती अर्थात् तुष्टिकरण की नीति से स्थिति विकट से विकटतर होती चली जायेगी। राष्ट्र व समाज में सुख-शान्ति, भावनात्मक एकता अखण्डता यदि पैदा करनी है तो इसके लिए वेदसम्मत महर्षि का मार्ग ही अन्तत: अपनाना होगा :-
संगच्छध्वं सवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।। (ऋग्वेद)
अर्थात् उन्नति, सुख शान्ति, एकता, अखण्डता, आपसी भाईचारे, राष्ट्रीय समृद्धि के लिए हम पूर्वजों द्वारा बताए गए मार्ग (मजहब या सम्प्रदाय नहीं) का अवगाहन करते हुए मिलकर चलें, मिलकर बोलें और हमारे मन एक जैसी मानवीय विचारधारा से ओतप्रोत हों। - भगवानदेव चैतन्य
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Today, in the name of religion, the process of mutilation, hatred and disorganization, which is going on all around, is not religion but religion and community at the root of it. Sampradaya or religion is the beliefs of any one great man and caste or community special. This is why linguism, regionalism and selfishism flourish. Outside signs and beliefs are given more importance than inner sanctity. Communal people only want the best of their loved ones. That is why feelings like humanism, nationalism, cosmopolitanism disappear.
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आर्यों का मूल निवास आर्यों के मूल निवास के विषय में महर्षि दयानन्द का दृढ कथन है कि सृष्टि के आदि में मानव तिब्बत की धरती पर उत्पन्न हुआ था। तिब्बत में पैदा होने वालों में आर्य भी थे और दस्यु भी थे। स्वभाव के कारण उनके आर्य और दस्यु नाम हो गये थे। उनका आपस में बहुत विरोध बढ गया, तब आर्य लोग उस...
नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...