आज का युवक आक्रोश और क्रान्ति की भावनाओं से भरा हुआ विद्रोह की ज्वाला जलाने के लिए उत्सुक दिखाई देता है। तोड़-फोड़ उसकी प्रवृत्ति बन गई है। पुरानी मान्यताएँ और रूढियॉं उसके पैरों में उलझकर उसका स्वार्थभरा मार्ग अवरुद्ध करती हैं तो वह उन्हें सुलझाना नहीं चाहता, अपितु अपनी भीमकाय शक्ति का प्रयोग करके उन्हें तोड़ डालता है। वह सब कुछ तोड़ रहा है- पुराने मूल्यों को व्यवस्था को, अनुशासन को और यहॉं तक कि अपने आप को भी। वह सबको तोड़ते-तोड़ते अपने आप भी टूट जाता है। आज का नवयुवक वैयक्तिक स्वातन्त्र्य के मूल्य को ही स्थापित करने में लगा हुआ है। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में सुधार के लिए अभी उसे समय ही नहीं है। युग के बदल जाने पर जो सन्ध्या काल होता है उसमें आक्रोश अवश्यम्भावी है और यह युग सन्ध्या काल ही है।
Ved Katha Pravachan - 19 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
पुरानी और नई पीढी का संघर्ष शाश्वत है। सदैव यह संघर्ष रहा है और रहेगा भी। अन्तर संघर्ष की कटुता और तीव्रता का है। युवक नये युग का प्रतिनिधि है और पुरानी पीढी के लोग अपने पुराने युग से जुड़े हुए हैं। उसी को सत्य मानते रहते हैं। जबकि वह यह भूल जाते हैं कि जब वे युवक थे तो उनके विचार और बुजुर्गों के विचार में अन्तर था। वहीं अन्तर आज भी आ गया है। हॉं ! सत्य सिद्धान्त शाश्वत है।
आज के युवक में आक्रोश की तीव्रता है। वह पुराने को हटाकर सन्तुष्ट नहीं होता, अपितु उसे तोड़ या नष्ट कर देना चाहता है। लेकिन यह बगैर सोचे-समझे अनुचित कदम है। पुरातन का केवल इसलिए त्याग नहीं कर देना चाहिये कि वह पुरातन है और न वह नवीनता का वरण इसलिए करे कि वह नया है। जो राष्ट्र या व्यक्ति अपने अतीत को भुला देता है, वह बिना नींव के नई इमारत खड़ी करना चाहता है और जो अतीत को पकड़कर बैठा रहता है वह भी खतरे का कारण है। इसीलिए प्राचीन और नवीन दोनों की बुद्धिसंगत न्यायोचित मानव समाज की हितकारी प्रवृत्तियों का आर्यसमाज ने सदा स्वागत किया है। युवकों द्वारा तोड़-फोड़ का एक यह भी कारण है कि चेतना का तो कुछ विकास हुआ है, किन्तु उपलब्धि के नाम पर उसे कोरे नारे ही मिलते हैं। इसका एक उदाहरण सुनकर समझ सकेंगे। सन् 1967 में रुड़की विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी जब दीक्षान्त भाषण देने खड़ी हुई तो इंजीनियर की डिग्री प्राप्त एक सहस्र युवक खड़े होकर समवेत स्वर में बोले "हमें भाषण नहीं नौकरी चाहिए।" तब प्रधानमन्त्री उसका समुचित उत्तर न दे सकीं। युवक वर्ग को दी जानेवाली शिक्षा उद्देश्य विहीन होने के कारण व्यर्थ प्रमाणित हो चुकी है। वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाला युवक भी जब बेकारी से ग्रस्त हो तो उसमें आक्रोश आना स्वाभाविक है।
जैसा कि हम पूर्व विवेचन कर चुके हैं आज के युग के प्राचीन नैतिक मान्यताएँ आँख बन्द करके व्यर्थ समझी जा रही हैं तथा नवीन नैतिकता का निर्माण तो हुआ नहीं है और जो कुछ हुआ सब असफल रहा है। जब नैतिकता का मापदण्ड सदा एक ही होता है (रहा है) तो आज नया मापदण्ड बना वह असफल प्रयत्न क्यों किया जा रहा है? जो शक्ति सृजन के कार्यों में लगनी चाहिए थी वह विध्वंस में लगकर पतन की ओर अग्रसर करती है। आज का युवक सैक्स को नैतिक मूल्यों से नहीं जोड़ना चाहता, आज वह पुराने सम्बन्धों के प्रति आस्थावान् नहीं है। इस आर्थिक वैषम्य में जब वह अन्तर्मुखी होता है तो वैज्ञानिक युग का प्रभाव उसे अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं से भी जोड़ देता है। उसमें मानवता तो कहने मात्र की है तथा आध्यात्मिकता से बिल्कुल दूर है। उसमें स्वार्थ की नैतिकता है, किन्तु सामाजिक नैतिकता का पालन नहीं करना चाहता है। उसमें नाममात्र प्रेम है तथा वह सभी सम्बन्ध को नहीं बनाए रखना चाहता। उसमें बनावटी संघर्ष की शक्ति है, इसीलिए उसका संघर्ष उद्देश्यहीन हो गया। उसमें कहने को स्वाभिमान है, किन्तु युग की समस्याओं की जटिलता के सम्मुख वह टूट रहा है। वह नवीन मूल्यों का सृजन करना चाहता है, लेकिन सफलता न मिलने के कारण प्रतीक्षित है। एक ओर उसमें अपने अस्तित्व की रक्षा का भाव है, जिजीविषा है, मानवता के प्रति अटूट आस्था है तो दूसरी ओर उसे निरन्तर सन्त्रास, भय, मृत्युबोध संकट और संघर्ष के मार्ग से गुजरना पड़ रहा है। यही कारण है कि जब उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगने लग जाता है तो वह पीढी संघर्ष को शान्ति के मार्ग द्वारा नहीं अपनाना चाहता अपितु अपने आक्रोश को विध्वंस के रूप में अभिव्यक्त करता है तथा उसकी सारी आशाएं पानी के बुलबुले के समान धराशायी हो स्वप्न का रूप भी नहीं ले पातीं। एक ओर वह अमानवीय तत्त्वों से संघर्ष करता है, बेरोजगारी और गरीबी के संयुक्त आक्रामण का सामना करता है तो दूसरी तरफ इसे गलाघोट वातावरण कहकर निकल भागना चाहता हुआ सभी प्रकार की दीवारों को तोड़ देना चाहता है। इस स्थिति में उसे अपने माता-पिता और गुरुजनों से निकृष्ट और असभ्य व्यवहार करने में भी हिचक नहीं होती। यही कारण है कि आज के युग में पीढी संघर्ष अधिक तीव्रतर तथा अधिक भयानक हो गया है। जब युवक अपनी ही कमजोरी के कारण संघर्ष में ढीला पड़ जाता है अर्थात् जब समाधान निकालने में अशक्त हो जाता है तो या तो दैव को ही सब कुछ मान बैठता है अथवा क्रान्ति का मार्ग अपना लेता है। दैव को भाग्य विधाता मानने का युग बीत चुका है। अब तो युवक क्रान्ति के मार्ग पर होने को उत्सुक है। चारों ओर से सत्ता और पैसे वाले अजगर डस-डस कर उसे मूर्च्छित कर रहे हैं।
इस विषम स्थिति में आज के युवक का दायित्व अधिक बड़ा है। उसे जनमानस को बदलना है, परिस्थितियों को बदलना है, नवीन उत्कृष्ट मूल्यों का सृजन कर वैज्ञानिक क्षेत्रों में नवीन शोध कार्य करने हैं। ऐसी स्थिति में यदि वह स्वयं विचलित हो गया तो सम्पूर्ण राष्ट्र ही धराशायी हो जायेगा। बदलने का अर्थ तोड़ना नहीं है, बल्कि पर्याय के रूप में पहली वस्तु या सिद्धान्त की जगह दूसरा स्थापित किया जाना होता है। युवक वर्ग को चाहिए कि वह कर्त्तव्य और अधिकारों की चेतना से शिक्षित हो। आज हमें समाज में यथेष्ट परिवर्तन करने होंगे। दहेज और शराब जैसी सामाजिक बुराइयों को उखाड़ फैंकना होगा।
युवको ! यदि आपको क्रान्ति (गली-सड़ी व्यवस्था का परिवर्तन) में भाग लेना है तो निश्चित रूप से मध्यम व सामान्य वर्ग को मिलाकर सामाजिक परिवर्तन में हिस्सा लेना होगा। युवकों का इस संघर्ष में हिस्सा लेना इसलिए ही जरूरी नहीं है कि क्रान्ति से रोजगार और सम्पन्नता की तुरन्त सम्भावना पैदा होगी, बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि इस आदमखोर व्यवस्था अर्थात् उपभोक्तावादी संस्कृति ने आदमी के जीवन को स्नेह, ममता, अपनत्व, सहयोग, त्याग, बन्धुत्व, ईश्वर के ठीक-ठीक स्वरूप (जो इन्सान का लक्ष्य है), मानवमूल्यों और संगीत-साहित्य-कलादि के विशुद्ध सांस्कृतिक परिवेश से दूर करके हमें जानवर की तरह स्वार्थपूर्ण, आत्मकेन्द्रित और आदर्शहीन जिन्दगी जीने के लिए मजबूर कर दिया है। क्यों नहीं हम जब मानव हैं तो मानवीय जीवनयापन करें और जिन दरिन्दों ने हमें ऐसी जिन्दगी जीने से वंचित कर दिया है, उनसे आगे बढकर क्यों न जूझें, उन्हें पराजित कर इस चक्रव्यूह को ध्वस्त करके वैदिक मानवीय मूल्यों का सृजन क्यों न करें?
नौजवान साथी ! हमें अपनी पूरी ताकत के साथ हर क्षण इन जनविरोधी पैशाचिक शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहना चाहिए। जब हमारा संघर्ष आगे बढेगा तो निश्चित रूप से हमारे रक्त की एक-एक बूंद सौ-सौ, हजार-हजार, लाख-लाख फौलादी इन्सानों को जन्म देगी। ऐसी स्थिति में हम पूरी तरह विजयी क्यों नहीं होंगे! वैसे भी एक-एक कदम करके हम हर क्षण आगे ही तो बढते हैं। यह अलग बात है कि हमारी गति सतही तौर पर दिखाई न पड़ती हो लेकिन नीचे आग है तो भाप बनने की प्रक्रिया तो पानी में पहले ही क्षण से शुरु हो जाती है। भले ही भाप दिखाई हमें एक बिन्दु के आने पर ही देती हो। दोस्त ! एक बात पूछें- क्या अन्धकार इस बात का प्रमाण नहीं है कि कहीं रोशनी भी होगी? क्योंकि रोशनी के अभाव में क्या अन्धकार की कल्पना भी की जा सकती है? मेरे युवक साथी आज अन्धेरा है तो कल प्रकाश भी जरूर होगा। क्योंकि हर रात की एक सुबह होती है। जरूरत प्रकाश के लिए अन्धेरे से लड़ने की है। इस संघर्ष में हम अकेले नहीं हैं, हमारे जैसे हजारों लाखों लोग देश ही नहीं धरती के जर्रे-जर्रे पर नयी सुबह यानी दुनियॉं के लिए एक स्वस्थ समृद्ध समाज की स्थापना के लिए निरन्त संघर्ष कर रहे हैं। कहो ! मेरे युवक साथी अब तुम निराशा के अन्धेरे में डूबा रहना चाहते हो या दुनियॉं को बदलने के संघर्ष में शामिल होना चाहोगे? एक बात सदा स्मरण रखना कि संघर्ष से जीवन मिलता है, मिला है और जरूर मिलेगा, लेकिन ठहराव और पलायन से हमेशा मृत्यु ही मिलती है, एक कायरतापूर्ण घृणित एवं जलालत की मौत।
यदि मेरे आगे चारों वेद हैं तो पीछे धनुष बाण भी हैं अर्थात् वाणी से भी और शस्त्र से भी मैं समर्थ हूँ। कितना ऊंचा आदर्श ! कितना अदम्य साहस और आत्मविश्वास, सत्य और साहस की शक्ति और शौर्य की पराकाष्ठा ! निश्चय ही वैदिक संस्कृति की स्थापना के लिए तड़प रखने वाले प्रत्येक बाल, युवा, वृद्ध को इसे ही अपने जीवन का सम्बल बनाना होगा। अपने दुर्ग और दिवारों पर, पाठशाला और पुस्तकों पर, गली और कूंचों में इस गौरव-पूर्ण वाक्य को लिखकर उस शक्ति के पुञ्ज और विद्या के अटूट भण्डार देव दयानन्द और सत्य सनातन वैदिक धर्म को अपने जीवन संग्राम का आधार बनाना पड़ेगा, जिसके द्वारा सम्पूर्ण वैदिक क्रान्ति का शंखनाद होता है। - महेन्द्रसिंह शास्त्री (आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा शताब्दी स्मारिका, मई 1987)
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The struggle of old and new generation is eternal. This struggle has always been and will continue to be. The difference is in the intensity and intensity of the struggle. Youth is a representation of the new era and people of the old generation are connected to their old era. Consider the same to be true When she forgot that when she was a young man there was a difference between her thoughts and the views of elders. The difference has come even today. Yes! Truth theory is eternal.
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नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...