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आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत

आज केवल भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि समूचा विश्‍व ही एक अजीब प्रकार के आतंकवाद की छाया में साँसें ले रहा है। एक व्यक्ति को किसी दूसरे पर विश्‍वास नहीं और एक राष्ट्र को किसी दूसरे राष्ट्र पर वह पहले जैसी विश्‍वनीयता नहीं रही है। आज मानव की कथनी और करनी में भिन्नता आ गई है। इसीलिए एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, और वैर वैमनस्य अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका है, अन्यथा मानवता का खून जो गलियों, मुहल्लों और फुटपाथों पर बह रहा है वह इतना सस्ता नहीं। हमारे ऋषि मुनियों का कथन है कि मानव के सुख और शान्ति का आधार केवल मात्र धर्म है। धर्म का मार्ग एकमात्र मार्ग है जो हमे परितृप्ति दे सकता है। बिना धर्म के रेगिस्तान में पानी की तलाश में भटकते हुए मृग की तरह इन सांसारिक वासनाओं की तृप्ति की दौड़ में भटक-भटकर मनुष्य दम तोड़ रहा है। उसे कभी भी कहीं भी तृप्ति नहीं मिलती। यह ठीक है कि धर्म ही सुख का आधार है, मगर आज तो धर्म भी अपने वास्तविक स्वरूप से हटकर मजहब और सम्प्रदाय की पगडण्डियों में भटक रहा है। लोग मजहब और सम्प्रदाय को ही धर्म मानने की भयंकर भूल कर रहे हैं।

Ved Katha Pravachan - 11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

इसीलिए आम आदमी को भी लगने लगा है कि वास्तव में यह धर्म ही सभी प्रकार के आतंक और खून-खराबे के लिए उत्तरदायी है। उसका ऐसा सोचना स्वाभाविक भी है। कल्पना कीजिए कि एक चौराहे पर कोई व्यक्ति बार-बार रेत को फाँक रहा है और झुँझलाते हुए बार-बार थूक भी रहा है। किसी भले आदमी ने तो उसके पास जाकर इसका कारण पूछा तो वह बोला कि मैंने तो सुना था कि चीनी मीठी होती है मगर इसमें तो जरा-सी भी मिठास नहीं है। उसकी अज्ञानता पर वह भला आदमी हैरान रह गया। उसने उसे समझाया कि मेरे भाई यह बात तो अक्षरशः सत्य है कि चीनी मीठी होती है मगर तुम जिसे फाँक रहे हो, चीनी नहीं रेत है और रेत में मिठास नहीं है। ठीक यही स्थिति उन लोगों की है जो मजहब और सम्प्रदाय के कारण होने वाले अनाचार को देखकर ही धर्म को कोस रहे हैं। ऋषि-मुनियों की यह बात अक्षरशः सत्य है कि सुखस्य मूलम् धर्मः। 

धर्म ही सुख का आधार है। धर्म के स्वरूप को गहराई से समझने की आवश्यकता है। धर्म तो एक सार्वभौमिक सत्य है। एक व्यवस्था है तथा मानवमात्र के लिए एक है मगर जैसे हमने परमात्मा की दी हुई जमीन को बाँटकर अपने अलग-अलग देश आदि बना दिए। ठीक इसी प्रकार हमने धर्म को बाँटने का घातक कार्य भी कर दिया। जब धर्म ही बँट गया तो फिर व्यक्तियों को बँटना भी अनिवार्य हो गया। इस प्रकार सामूहिक मानवता अलग-अलग दायरों में सीमित होकर रह गई ः धर्म को बाँटकर हमने उसकी हत्या कर दी, उसे मार दिया इसलिए जो धर्म हमारी रक्षा करने वाला था, आज वही हमें मार रहा है। मरा हुआ धर्म ही मजहब और सम्प्रदाय है जो आज व्यक्ति व्यक्ति को एक-दूसरे के सामने हाथों में बन्दूकें, तलवारें और बम पकड़ाकर मानवता का ही नहीं बल्कि राष्ट्र और समूचे विश्‍व को विनष्ट कर रहा है। मनु महाराज ने कितने स्पष्ट शब्दों में कहा है- 
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्वर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥ 

अर्थात मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको मार न डाले । 

कितने शब्दों में और कितनी मार्मिक चेतावनी दे दी गई है, मगर हाय रे मानव के स्वार्थ अपनी अपनी ढपली अलग बजाने और अपने-अपने दायरे बनाकर दुकानें सजाने की प्रवृत्ति ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। यदि हम आज भी वास्तविक सुख और शान्ति चाहते हैं, चाहते हैं कि मानव-मानव के खून का प्यासा न बनें, चाहते हैं कि आज भी समूचा विश्‍व एक परिवार की तरह बनकर जीओ और जीने दो के सिद्धांत पर आरूढ़ हो सके तो इस मरे हुए धर्म को, अलग-अलग दायरों में बँटे हुए इस धर्म को एकत्व प्रदान करना होगा। इसी बात को महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी ने अनुभव किया था। वे विश्‍वमित्र थे। हालांकि लोगों ने उनके मन्तव्य को गहराई से नहीं समझा और उनका सहयोग देने के स्थान पर उनका विरोध करने के लिए अपने-अपने खेमे और अधिक सुदृढ़ बना दिए। अपने-अपने स्वार्थों के दायरों को ही परिपुष्टता देने के लिए उनकी अवहेलना करते रहे। यदि उस समय सबने उनका सहयोग देकर पुनः इस  मारे हुए धर्म को संजीवनी दे दी होती तो आज स्थिति कदापि ऐसी नहीं होती। अपने-अपने स्वार्थ इतनी प्रबलता लिए हुए थे कि उस महामानव को समाप्त कर देने लिए ही चारो ओर से षड्यन्त्र आरम्भ हो गए और उन्हें जैसे-तैसे समाप्त करके ही दम लिया। भले ही उन्हें समाप्त कर दिया मगर इतना तो निश्‍चित है कि सच्ची शान्ति और सुख का आधार वही है जिसे वे प्रशस्त कर गए हैं। एक वैदिक धर्म की शरण में आने के अतिरिक्त और कोई मार्ग है नही। वेद परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है जो मानव मात्र के लिए है। वहाँ पर हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख या ईसाई आदि के कोई दायरे नहीं है। ईरान, ईराक, रूस, अमेरिका आदि किसी एक राष्ट्र विशेष के लिए भी यह ज्ञान नहीं है। जिसकी छाया में बैठकर हम व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और समूचे विश्‍व के लिए सुख-शान्ति के आधार खोज सकते हैं। कभी न कभी मरे हुए धर्म को त्याग कर इस वैदिक धर्म की शरण में आना ही पड़ेगा। इस बँटे हुए धर्म को सीना ही पड़ेगा तभी प्रत्येक मानव एकता और स्नेह के सूत्र में बँध सकेंगे। अन्यथा जो विस्फोटक वातावरण आज हमारे राष्ट्र और समूचे विश्‍व में बन रहा है, वह समूची मानवता को भस्म कर देगा। 

महर्षि दयानन्दजी ने आर्य समाज के नियम में एक बहुत सुन्दर बात कही है- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए बल्कि प्रत्येक की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिए। यह वाक्य मानवता के समूच इतिहास में अपना एक अलग स्थान रखता है मगर आ के वातावरण में अपने-अपने दायों में सिमटे हुए इस स्वार्थी मानव के पास इस   बात को सुनने और मानने की फुर्सत नहीं। आज तो सब ओर स्वार्थ का बोलबाला है। किसी को चाहे एक दाना भी खाते को न मिले मगर मैं अपनी तिजोरियाँ भर लूँ, बस हर किसी में यही होड़ लगी हुई है। हर कोई हर किसी का सर्वस्व छीनने को तैयार बैठा है। त्याग और परोपकार की भावना विलुप्त होती जा रही है। और इस पर तुर्रा यह कि सब कुछ पा लेने के बाद भी व्यक्ति या राष्ट्र  पुनः प्यासे के प्यासे ही दिखाई देते हैं। वे अतृप्ति के एक ऐसे खण्डहर में भटक रहे हैं जहाँ सैकड़ों आ जाएँ तो करोड़ों की भूख है तथा करो़ड़ों आ जाएँ तो अरबों की भूख है। इस भूख को मिटाने के लिए हर कोई दूसरे का खून बहा रहा है, दूसरे का घर जला रहा है। लेकिन आश्‍चर्य यह कि ऐसा नीच व अमानवीय व्यवहार वह औरों के साथ तो करता है मगर स्वयं दूसरों द्वारा जब उसके साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया जाता है तो वह रोचा और चिल्लाता है- धर्म की दुहाई देता है, दुनिया को कोसता है। ऐसी स्थिति में यदि कोई विवेकशील व्यक्ति अपनी विवेकशीलता को जागृत कर ले तो उसका जीवन ही पलट सकता है। वह असाधारण मानव बन सकता है मगर ऐसा बहुत ही कम लोगों के साथ हो पाता है। जिनके साथ ऐसी विवेकशीलता की घटना घटती हैं, वे इस तथ्य को आत्मसात कर पाते हैं- आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत। अर्थात हम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसे दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं। यदि यह गुरुमन्त्र आज प्रत्येक व्यक्ति और राष्ट्र अपने-अपने हृदय में बिठा ले तो यह मार काट, लूट-खसूट और खून की नदियाँ बहने से बच सकती हैं। तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे घर कोई चोरी या डाका डाले तो निश्‍चित रूप से तुम्हें भी किसी के घर डाका नहीं डालना चाहिए। यह वाक्य वास्तव में ही आज विलुप्त होती जा रही मानवता के लिए संजीवनी का काम कर सकता है। यदि हम धर्म के इस सर्वोत्कृष्ट रूप को अंगीकार कर लें तो समाज की सम्पूर्ण व्यवस्था एक नया रूप ले सकती है। दुनिया भरके ग्रन्थों और उपदेशों का सार यही एक वाक्य है। जिओ और जीने दो का सिद्धांत यही तो है।

आज व्यक्ति हर वस्तु का सरलीकरण करना चाहता है और धर्म के मामले में भी उसने यही बात अपनाई। इसके कारण ही किए हुए कर्मों के फल से बचने के भी कितने ही उपाय आज के मानव ने खोज लिए हैं। बड़े ही आश्‍चर्य की बात है कि आज लोग पाप करना भी चाहते हैं और पाप के फल से बचना भी चाहते हैं। इसी विचार ने धर्म के वास्तविक स्वरूप को बिगाड़ने का काम किया है। बुरे कार्य के फल से बचने की होड़ ने व्यक्ति को अधर्म की ओर प्रेरित किया है। बुरे कर्मों से बचाने के कई ठेकेदार आज पैदा हो गए हैं। कोई किसी गुरु के पास जाकर कर्मफल से मुक्ति चाहता है तो कोई किसी पैगम्बर और पीर के पास। कोई किसी देवता की शरण में जाता है तो कोई किसी नदी या तीर्थ विशेष पर। व्यक्ति की इस स्वार्थ वृत्ति ने धर्म के समूचे स्वरूप को छिन्न-भिन्न करके रख दिया। धर्म तो एक व्यवस्था थी, जीवन पद्धति थी मगर इस पाखण्ड की आँच पर रखकर यह धर्म ही अधर्म का कारण बन गया। धर्म पर चलने के कुछ नियम निर्धारित किए गए थे। व्यक्ति को सुकर्मों की पूँजी एकत्रित करने के लिए कुछ आधार प्रस्तुत किए गए थे मगर इस कर्मफल की माफी ने सारे का सारा ढाँचा ही गिराकर रख दिया। जब कोई व्यक्ति इस आस्था को पालकर चल पड़ता है कि चाहे वह कितना ही पाप करे यदि वह पाप करने के बाद किसी गुरु की शरण में, पैगम्बर की शरण में या तीर्थ एवं नदी की शरण में चला जाएगा तो उसके सभी पाप कर्म माफ हो जाएँगे तो भल वह कर्म क्योंकर छोड़ेगा? आज जिनते भी मत-मजहब और गुरु-पैगम्बर आदि हैं, सभी ने इसी प्रकार की दुकानें खोल रखी हैं, इसलिए वे दुकानें चल भी अधिक रही हैं, क्योंकि पाप करके उस पाप के फल से बचना हर मानव की कमजोरी है। लेकिन इसके कारण ही आज पापों में वृद्धि हो रही है। स्वयं अपने आप से व्यक्ति ही इस प्रकार ठगा जा रहा है। 

अपने-अपने लिए सभी लोगों ने धर्म के छोटे-छोटे रूप गढ़ लिए हैं। ऐसे व्यक्ति तो आपको हर कहीं मिल जाएँगे जो वैसे तो मांस और शराब पीना बुरा नहीं समझते मगर धार्मिक कहलाने के लिए वे मंगलवार या अन्य किसी विशेष दिन यह काम नहीं करेंगे। इससे वह व्यक्ति इसी भ्रम में रहता है कि क्योंकि वह अमुक तिथि या दिन को यह कुकृत्य नहीं करता है इसलिए अन्य दिन जो यह बुरा कर्म कर रहा है उसका उसे बुरा फल नहीं मिलेगा। कोई किसी आडम्बर में तो कोई किसी में अपने आपको इसी प्रकार उलझाए बैठा है। आपको कोई दुकानदार ऐसा भी मिल सकता है जो कहता है कि देखो शाम का समय है आपसे झूठ नहीं बोलूँगा। इसका भी यही तो भाव है कि वह अपने मन में एक भाव लेकर चला हुआ है कि केवल शाम के समय झूठ बोलना पास है शेष दिन वह चाहते जो मर्जी करता रहे। कुछ लोग इसी प्रकार किन्हीं विशेष तिथियों या दिनों में भोजन आदि न खाने को ही धर्म का अंग मान रहे हैं। इस प्रकार कितने ही पाखण्डियों ने धर्म के सही स्वरूप पर कुठाराघात करके उसे मार दिया है। कोई चूल्हे चौके तक ही ही धर्म को सीमित करके बैठ गया तो कोई विशेष मन्दिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे तक ही सीमित हो गया। आज तो और पता नहीं कितनी ही दुकानें धर्म के नाम पर चल पड़ी हैं। ज्यों-ज्यों ये नए-नए सम्प्रदाया बढ़ते चले जा रहे हैं, धर्म का और भी अधिक ह्रास होता चला जा रहा है। 

इन सब दायरों से निकलकर एक वैदिक धर्म की शरण में आने की आवश्यकता है। इसी से मानवता का हित हो सकेगा। वेद ही सच्चा और मानव धर्म है। इस बारे में बहुत कुछ कहा गया है- वेदोऽखिलो धर्ममूलं। अर्थात वेद ही समस्त धर्म का मूल है। अर्थात वेद ही समस्त धर्म का मूल है। वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः एतचुर्थविद्यं प्राहु साक्षात्धर्मस्य लक्षणः अर्थात स्वयं को अच्छा लगने वाला व्यवहार महापुरुषों का आचरण तथा स्मृति और वेद इनमें जो धर्म के लक्षण हैं, वही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। आगे चलकर इससे बढ़कर एक बात कही गई है कि- धर्मजिज्ञासामानानं प्रमाणं परमं श्रुतिः। अर्थात धर्म के बारे में सबसे बड़ा प्रमाण वेद ही है। इन वाक्यों से यह भली प्रकार से प्रमाणित हो जाता है कि वेद ही मानव धर्म का ग्रन्थ है ः वे सृष्टि के आरम्भ में दिया ज्ञान है, वेद विज्ञानसम्मत है मथा शाश्‍वत हैं। 

महर्षि दयानन्दजी की यह विशेष विशेषता है कि उन्होंने अपना कोई अलग मत या मजहब नहीं चलाया बल्कि बिखरे हुए मानवता के सूत्रों को जोड़ने के लिए परमात्मा का दिया हुआ वेद ज्ञान हमारे समक्ष रखा। वे एकमात्र ऐसे महापुरुष दिखाई देते हैं जिन्होंने वेद का आधार लेकर धर्म को पुनः व्यवहारिकता के साथ जोड़ा। उन्होंने साफ शब्दों में इस बात की घोषणा की कि व्यक्ति द्वारा किए हुए पाप कभी भी माफ नहीं हो सकते हैं। उन्होंने धर्म को व्यवहार के साथ जोड़ा। उनकी आस्था थी कि धर्म किसी प्रकार के बाह्य आडम्बर का नाम नहीं है और न ही किसी विशेष प्रकार के चिन्ह धारण कर लेना अथवा पहरावा पहन लेने का नाम ही धर्म है। वास्तविकता यह है- कि न लिंग धर्म कारणं -  धर्म तो एक शाश्‍वत सत्य है जो व्यक्तियों को वैर  विरोध के माध्यम से बाँटता नहीं बल्कि प्रेम और सौहार्द की रस्सी से बाँधता है। मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण माने हैं- 

धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
घीर्विधा सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ (मनु. 6-62) 

अर्थात सदा धैर्य रखना, क्षमाशील होना, मन को सदा सत्य कार्यों की ओर ही लगाए रखना, चोरी त्याग, बाहर भीतर को पवित्रता, इन्द्रियों को सदा पुण्य कार्यों की ओर से ही लगाना, बुद्धि को सन्मार्ग की ओर ही लगाए रखना, विद्या वृद्धि करना, सत्य को कभी न त्यागना और क्रोधादि दोषों से सदा दूर रहना। इन मानवीय गुणों से विभूषित व्यक्ति ही धार्मिक कहलाने का अधिकारी है।

दर्शनकार का कथन है कि यतोेऽभ्युदय निःश्रेंयस सिद्धि धर्म। अर्थात जिससे लोग और परलोक की उन्नति हो वह धर्म है। मनु महाराज के ऊपर दिए लक्षण जिस व्यक्ति में हैं, वह निश्‍चित रूप से इस लोक और परलोक को सुधार सकेगा। इन गुणों से जो हीन हैं, वह अधार्मिक तथा अपने इस लोक और परलोक को भी बिगाड़ने वाला है। ऊपर जो धर्म के लक्षण दिए गए हैं वे सभी व्यक्तियों को उन्नति की और सुख-शान्ति का आधार है। इन नियमों को अपनाकर ही व्यक्ति महान से महानतम बन सकता है। महान या बड़ा वह नहीं जिसने कोई बाहरी चिन्ह आदि अपना रखे हों बल्कि महान या पण्डित वह है जिसने इन समस्त गुणों को अपने भीतर आत्मसात कर रखा है। माथा छापने, कण्ठी आदि धारण करने से, विशेष प्रकार की मूँछ, दाढ़ी रख लेना, टोपी या चोगा पहन लेना आदि पाण्डित्य का स्वरूप नहीं है बल्कि इसके स्थान पर जिसने अपने आपको भीतर से पवित्र और महान बना लिया है वही पण्डित, ज्ञानी है और महान है। किसी कवि ने बड़ा ही सुन्दर कहा है- 

मातृवत् परदारेषु पर द्रव्येषु लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः॥ 

अर्थात वही व्यक्ति महान पण्डित है जो दूसरे की पत्नी को अपनी माता के समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान तथा अपनी आत्मा के समान प्राणीमात्र को समझता है वही वास्तव में विद्वान या धार्मिक व्यक्ति है। ऐसे गुणों को व्यक्ति उपरोक्त धर्म के लक्षणों को अपना कर ही अपने भीतर पैदा कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति यदि धर्म के ऐसे ही पवित्र स्वरूप को पहचान कर इससे ओतप्रोत हो जाए तो फिर वैर-विरोध और मार-काट तथा आतंकवाद कहाँ रह जाएगा? फिर मानव ही मानव का खून कैसे बहा सकेगा? फिर तो मानकवि तुलसीदास की ये पंक्तियाँ स्वतः ही सार्थक हो जाएँगी-

परहित सरस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई। 

आज यदि कोई भी व्यक्ति या राष्ट्र अपनी वास्तविक उन्नति चाहता है, वह चाहता है कि विश्‍व से आतंकवाद एवं वैर विरोध समूल नष्ट हो जाए तो धर्म के इसी वैज्ञानिक स्वरूप को अपनाना होगा। ऐसे दिव्य गुणों से विभूषित व्यक्ति ही जीयो और जीने दो के सिद्धांत को अपना कर प्रेम और सौहार्द की गंगा बहा सकता है। वही वेद इस अमर सन्देश को समझ सकता है- 

संगच्छध्वं वदध्वं सं वो मनांसित जानताम्।
देवा भागं यथा वूर्वे सं जानाना उपासते॥ 

अर्थात- प्रेम से मिलकर चलो बोलो सभी ज्ञानी बनो।
पूर्वजों की भांति तुम कर्तव्य के मानी बनो॥ 

उसके लिए तो फिर यही वाक्य रामबाण सिद्ध हो जाएगा। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत। - भगवान देव चैतन्य

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Religion is the basis of happiness. There is a need to understand the nature of religion deeply. Religion is a universal truth. There is a system and there is one for mankind, but as we divide the given land of God and made our different countries etc. Similarly, we have also done a fatal act of dividing religion. When religion itself was divided, it then became mandatory to divide individuals.

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