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उल्लासमय जीवन जीने के लिए षट् सम्पत्ति

इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चितिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे। 
पोषं रयीणाम अरिष्टिं तनूनां स्वाद्मानं वाचः सुनित्वमह्नाम॥ 

शब्दार्थ - हे (इन्द्र) परमैश्‍वर्य के भण्डार प्रभो! हमारे लिए (श्रेष्ठानी) उत्तम (द्रवणानि) धन (दक्षस्य) नैपुण्य और बल की (चित्तिम्) प्रसिद्धि (सुभगत्वम्) सौभाग्य (रयीणाम्) ऐश्‍वर्यों की (पोषम्) पुष्टि (तनूनाम्) शरीरों की (अरिष्टिम्) निरोगता (वाचः स्वाद् मानम्) वाणी की मधुरता (अह्नाम्) दिनों की (सुदिनत्वम्) शोभनता (धेहि) प्रदान कर।   

Ved Katha Pravachan - 16 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

व्याख्या - सफल और उल्लासमय जीवन के लिए भक्त भगवान् से इस मन्त्र में षट् सम्पति की याचना कर रहा है। वही याचक याचित पदार्थों का अधिकारी होता है, जो उन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो, सो वेदमाता अपने अमृतपुत्रों को इस मन्त्र में मानो आदेश भी दे रही है कि आनन्दमय जीवन-यापन के लिए यह सम्पत्ति एकत्रित करो। परिश्रमी ही याचना करने का अधिकारी होता है। अब क्रमशः वेदमन्त्र के आधार पर विचारणीय है कि भक्त क्या प्रार्थना वा याचना कर रहा है?

1. सर्वप्रथम भक्त भगवान से याचना कर रहा है - हे परमैश्‍वर्यशाली इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि। श्रेष्ठानि द्रविणानि की परिभाषा करते हुए कहा गया है - अधर्म अन्याय तथा दूसरों को कष्ट देकर कमाया हुआ अर्थ श्रेष्ठ नहीं। वह वास्तव में अनर्थ का कारण होता है। इतिहास साक्षी है जहाँ-जहाँ इस प्रकार का अर्थ आया, वह अनर्थ का कारण बना। दुर्योधन ने द्यूतक्रिया से पाण्डवों को सताकर धन प्राप्त किया। वही उसके सर्वनाश का कारण बना तथा स्वयं कुलघाती कहलाया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। लोक में प्रायः देखा जाता है। अन्याय से कमाया हुआ धन कष्टप्रद होता हुआ, कष्टनिवारणार्थ जल्दी ही समाप्त हो जाता है। वह कदापि स्थायी वा आनन्ददायक नहीं होता। अतः धन श्रेष्ठ ढंग से परिश्रमपूर्वक पावन-पवित्र विचारों से ओत-प्रोत ही आनन्ददायक होता है। 

2. श्रेष्ठ धन प्राप्त करने के पश्‍चात याचक का कर्तव्य वा याचना है कि हे भगवन्! दक्षस्य चित्तिम् सुभगत्वम्। यानि मैं दक्षता तथा निपुणता से धन का सदुपयोग करूँ। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-

कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय ।
वो खाए बौरात है यह पाए बौराए॥ 

अर्थात धतूरा तथा सोना (धन-सम्पत्ति) की तुलना करते हुए धन-सम्पत्ति को सौ गुणा ज्यादा कहा है। धतूरा खाने से बौखला जाता है, परन्तु सम्पत्तिशाली प्रायः अत्यधिक सम्पत्ति पाकर बौखला जाता है तथा अनिष्ट कार्य करने लगता है। सो दूसरी सम्पत्ति आनन्दित होने को है। बलपूर्वक शक्तिशाली होते हुए सम्पत्ति का सदुपयोग कर- उदारचरितानां वसुधैव कुटुम्बकम्। अपने परिवार को सुव्यवस्था करते हुए प्राणिमात्र को वह सम्पत्ति आनन्दित करने वाली होए, जो बाँटेंगे वही पाएँगे। सुखों का वितरण हो ताकि प्राप्त धनवृद्धि को प्राप्त होकर स्थायी रूप से रहें। ठीक-ठीक खर्च करना मानो लक्ष्मी का सम्मान है, परन्तु दुराचरण उसका अपमान है। अपमानित लक्ष्मी कभी भी स्थिर नहीं रहती।

3. तीसरी सम्पत्ति है -रयीणां पोषम् आय का स्त्रोत हो, यानी व्यय करते हुए आपको चिन्ता न हो कि धन समाप्त हो जाए। निश्‍चिन्त होकर व्यय करें। सो मितव्ययी को ऐसी चिन्ता कदापि नहीं होती। वास्तव में 100 कमाकर जो 80 खर्च करके 20 बचाता है, दान भी करता है, वही धनाढ्य है। 1000 कमाकर 1020 खर्च करता है, कहता है, मेरा स्वकीय खर्चा ही पूरा नहीं हो रहा है, दान कहाँ से करूँ? उल्टा व्यर्थ खर्चालू होने के कारण सदा ऋणी रहता है। ऋणी के पास कितना भी धन व अनुकूलताएँ हों, वह आनन्दित जीवन नहीं जी सकता। सो चादर देखकर पैर पसारो। इस प्रक्रिया से जीवन में कभी भी कमी नहीं आ सकती। रुखा सूखा खाय के ठण्डा पानी पी, देख पराई चूपड़ी मत ललचावो जी। अपनी नेक कमाई से कर्म- व्यवस्थानुसार जो मिला, उसी में सन्तोष कर - सन्तोषादनुत्तमः सुखलाभः सो आनन्दित जीवन की तीसरी सम्पत्ति सन्तोष है। मितव्ययी बनो। प्रभु से शक्ति माँगो। सीमा से बाहर जाने की इच्छाएँ हमें विह्वल न करें।

4. चौथी सम्पत्ति है - तनूनाम् अरिष्टिम्। मुझे स्वस्थ शरीर मिले। अव्वल सुख निरोगी काया। सर्वानुकूलताओं के होते हुए यदि शरीर रुग्ण है तो सभी सुख-सुविधाएँ व्यर्थ हैं। प्रायः देखा जाता है धनैश्‍वर्य से भरपूर मानव पावभर दूध भी हजम नहीं कर सकते, औषधियों का भण्डार लगा हुआ है। काफी धन डॉक्टर के पास जा रहा है। धन तथा तन्दुरुस्ती दो तराजू के पलड़े हैं। धन की खातिर अपने स्वास्थ्य की बलि मत चढ़ाओ। धन उपार्जन करते हुए हर क्षण अपने स्वास्थ्य के नियमों का भी ध्यान रखो। एक बार जब शरीर विकृत हो गया तो लाखों की सम्पत्ति कुर्बान करने पर भी स्वास्थ्य नहीं मिल सकता, परन्तु सम्पत्ति की कमी स्वस्थ  मानव परिश्रम तथा बुद्धि से पूर्ण कर सकता है। अतः शरीर की अस्वस्थता बहुत बड़ी हानी है। आनन्दित जीवन की परमाश्‍वक चतुर्थ सम्पत्ति शरीर स्वस्थ रहे। प्रभुकृपा से स्वस्थ रहो। 

5. पाँचवीं सम्पत्ति - स्वाद्मानं वाचः। उपरिलिखित चारों धन होते हुए भी यदि मधुर वाणी नहीं तो इस सद्गुण के बिना धन, बल नैपुण्य सुन्दर स्वास्थ्य सभी कठोर वाणी की अग्नि में भस्म हो जाते हैं। अतः वेदमन्त्रों में मधुरवाणी के लिए अनेक मन्त्र आते हैं। प्रतिदिन कहते है - वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु। हे वाणी के स्वामी हमारी वाणी को स्वादिष्ट बनाओ। ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए ओरन को शीतल करे आपहुं शीतल होए। कड़वी वाणी के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। द्रौपदी भीम के कडुवे वचनों से दुर्योधन का मन बदलने की भावना से भर गया, उधर युधिष्ठिर अपनी वाणी से भीष्म, द्रोण, कृप इत्यादि बड़ों से शुभ आशीष लेकर जाता है। सो सानन्द जीवन जीने के लिए सदैव मधुर वाणी का प्रयोग करो।

6. छठी सम्पति, जिसकी परमावश्यकता है तथा प्रायः हम इस ओर ध्यान नहीं देते, वह है, सुदिनत्वमह्नाम् यानि प्रत्येक आह्लादमय होना चाहिए। प्रत्येक प्रातः अनुभव करें - भग एवं भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम। जो कल बीत गया, उससे मैं आज ज्यादा आह्लादित हुआ। परमपिता परमात्मा की ओर से हरक्षण नयामते वर्षती है। उस सुखद आनन्ददायिनी वर्षा में स्नान करते हुए भी मानव हरक्षण कुछ न कुछ पाने के लिए लालायित है। जो कुछ कर्माव्यवस्थानुसार प्राप्त हुआ, उसे तो हम शून्य समझते हैं, तथा प्राप्तव्य के लिए लालायित रहते हैं। मेरे पास जो कुछ है, उसका आनन्द न लेते हुए मुझे अन्य लोगों की समृद्धि सता रही है। अमुक ज्यादा सुखी है, उसके पास अधिक है, मेरे पास उतना क्यों नहीं। सो ज्यादा की इच्छा हमें थोड़े के आनंद से भी वंचित रखती है। यह ईर्ष्या-द्वेेष की अग्नि तो मानो बड़े-बड़े जंगलों को जलाने वाली दावानल है। आज इस दावानल को शान्त करने वाले जल की आवश्यकता है। क्षण-क्षण से जीवन बनता है। जिस क्षण द्वेषानल का निर्माण करते हैं, उस समय जो कुछ प्राप्त है वह भी भस्मीभूत हो जाता है। अतः हे आनन्दित जीवन के इच्छुख मानव! प्रतिदिन जागरूक रहो, प्रत्येक दिन आह्लादपूर्ण हँसी-खुशी का गुब्बारा बनाओ। प्रायः कुशलक्षेम पूछने पर उत्तर मिलता है कट रही है, ठीक है। मानवचोला सर्वोत्तम योनि है। यह शरीर ही अनमोल खजाना है। इस वाहन पर सवार होकर परमधाम परमानन्द स्वरूप मोक्षस्वरूप  मोक्षधाम हमारी मंजिल है। प्राप्तव्य को जीवन में यदि नहीं करेंगे, तो कैसे पार जा सकते हैं। जैसे फूल की सुगन्धि फूल में ही होती है। वैसे ही आनन्दधाम के पथिक आनन्द तो तेरे पास ही है। माँ लोरियाँ गा-गा कर तुझे आनन्दित कर रही है। तूने तो सांसारिक शोर-शराबे से उस ध्वनि को सुनना ही बन्द कर दिया है। सो माँ तो इशारों से तुझे तेरे अपने घर आनन्द धाम बुला रही है, रास्ता समझा रही है।

1. श्रेष्ठधन कमाओ।
2. उस धन का सदुपयोग करो।
3. सोच-विचार के पश्‍चात खर्चों यानी मितव्ययी बनो।
4. शरीर को सर्वदा स्वस्थ रखो। मन स्वस्थ तो शरीर भी स्वस्थ रहेगा।
5. मधुरभाषी बनो।
6. हरक्षण सुखद है। सुख में दुःख में सदा समता का कवच पहनकर सर्दी-गर्मी रूपी अनुकूलता वा प्रतिकूलता से अपनी रक्षा करते हुए सदा मस्त आनन्दित रहो। 

चाह गई चिन्ता मिटी मनुवा बेपरवाह।
जिनको कुछ न चाहिए वे ही शहनशाह॥ 

यही है वेद माँ से दी हुई षट् सम्पत्ति, जो उसे सम्भाल कर रखता है, वह आनन्दित ही आनन्दित होता है। - सत्या पथरिया 

 

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In order to have a successful and happy life, the devotee is praying to the Lord for wealth in this mantra. The same petitioner is the possessor of the pleaded substances, who is trying to get them, so Vedmata is ordering his Amritaputras in this mantra as if to collect this wealth for joyful living. Hard working person is entitled to solicitation. Now on the basis of Vedamantra respectively, what is the prayer and prayer that the devotee is praying for?

 

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