शिव भव प्रजाभ्यो मानुषीभ्यम् त्वम् अंगिरः ! मा द्यावा-पृथिवी अभि शोचीर्, मा अन्तरिक्षं, मा वनस्-पतीन्। (यजुर्वेद 11. 45)
परमात्मा अंग-अंग में रमा हुआ है। उसके भक्त को भी अपने आराध्य देव के गुणों को धारण करके विश्व में सबका प्रिय बनकर, उसके अंग-अंग में रमना है। वेदमाता कहती है- हे अंगीरः ! सुमानव! (त्वम् मानुषीभ्यः प्रजाभ्यः शिवः भव) तू मानवी प्रजाओं के लिए कल्याणकारी बन। कल्याणकारी बनने के लिए मानव को अपनी त्रुटियों को दूर करना है। प्रकृति की रक्षा की जाए तो वह हमारी मित्र है अन्यथा नियमोल्लंघन करने से मानवी प्रजाओं को दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। अतः वेद आदेश देता है, (मा अभि शोचीः द्यावा-पृथिवी) द्यौ और पृथिवी को किसी भी प्रकार से संतप्त न कर। (मा अभि शोचीः अन्तरिक्षम्) अंतरिक्ष को बिलकुल मत सता। (मा अभि शोचीः वन-स्पतीन्) वनस्पतियों को मत उजाड़। इन त्रुटियों के कारण आज के मानव का जीवन संतप्त हो गया है। वह मनुष्यों के प्रति कल्याणप्रद न होकर क्रूर, स्वार्थी, शत्रु हो गया है। अपने सजातियों के साथ अभिद्रोह करके ही वह सन्तुष्ट नहीं है। वह धरा को बारुद से उड़ा रहा है, द्यौ और अन्तरिक्ष को परमाणु धमाकों से छेड़ रहा है, वनस्पतियाँ उजाड़ रहा है। इनके फलस्वरूप प्राकृतिक प्रकोपों से वह मनुष्यों के जीवन को संतप्त कर रहा है। - वेदबोध
Ved Katha Pravachan - 15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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Do not destroy the vegetation. Due to these errors, the life of today's human being has been satisfied. He has become cruel, selfish, and not hostile towards humans. He is not content only with the accusation of his convicts. He is blowing up the earth with gunpowder, raiding Dyou and Space with nuclear explosions, destroying vegetation.
नास्तिकता की समस्या का समाधान शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत एवं विवरण रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आई हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों...
मर्यादा चाहे जन-जीवन की हो, चाहे प्रकृति की हो, प्रायः एक रेखा के अधीन होती है। जन जीवन में पूर्वजों द्वारा खींची हुई सीमा रेखा को जाने-अनजाने आज की पीढी लांघती जा रही है। अपनी संस्कृति, परम्परा और पूर्वजों की धरोहर को ताक पर रखकर प्रगति नहीं हुआ करती। जिसे अधिकारपूर्वक अपना कहकर गौरव का अनुभव...